डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक बेहतरीन व्यंग्य – ‘गुरूजी का अमृत महोत्सव’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 220 ☆
☆ व्यंग्य – लेखक-पाठक प्रेमपूर्ण संवाद ☆
‘हलो, चतुर बोल रहे हैं?’
‘जी, आपका सेवक चतुर। चरण स्पर्श। सबेरे सबेरे कैसे स्मरण किया?’
‘भैया, तुम बड़े चतुर हो गये हो। बिना पढ़े रचना पर ‘लाइक’ ठोकते हो। अभी मैंने रचना फेसबुक पर डाली, और पाँच सेकंड में तुम्हारा ‘लाइक’ प्रकट हो गया। तीन पेज
की रचना पाँच सेकंड में पढ़ ली? लेखक को मूर्ख बनाते हो?’
‘कैसी बातें करते हैं गुरुदेव! हम तो आपकी दो लाइनें पढ़ते ही पूरी रचना के मिजाज़ को पकड़ लेते हैं। एक चावल को टटोलकर पूरी हंडी का जायज़ा ले लेते हैं। आप जैसे हर-दिल- अज़ीज़ लेखक को पूरा पढ़ने की ज़रूरत ही नहीं होती। आपने वह कहावत सुनी होगी कि ख़त का मज़मूँ भाँप लेते हैं लिफाफा देखकर। और फिर आपकी तारीफ करने के मामले में हम किसी से पीछे क्यों रहें? हम तो आपके पुराने मुरीद हैं। सच कहूँ तो आपका नाम देखते ही उँगलियाँ ‘लाइक’ दबाने के लिए फड़कने लगती हैं।’
‘अरे भैया, तो पाँच दस मिनट बाद भी ‘लाइक’ ठोक सकते हो ताकि लेखक को लगे कि रचना पढ़ी गयी। तुम्हारा झूठ तो सीधे पकड़ में आता है। मेरे अलावा दूसरे भी समझते हैं।’
‘गलती हो गई गुरू। आइन्दा पाँच दस मिनट बाद ही ‘लाइक’ मारूँगा।’
‘पढ़ कर।’
‘बिलकुल गुरुदेव, पढ़कर ही मारूँगा। आप भरोसा रखें। इस बार की भूल को चित्त में न धरें।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈