डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘तुम संस्कृति हो ?’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 132 ☆
☆ लघुकथा – तुम संस्कृति हो ? ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
शादी की भीड़ -भाड़ में अचानक मेरी नजर उस पर पड़ी- ‘अरे! यह तो संस्कृति है शायद? पर वह कैसे हो सकती है?’ मेरा मन मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था। चेहरा तो मिल रहा है लेकिन रहन–सहन? भला कोई इतना कैसे बदल सकता है? हाँ, यह सुना था कि वह विदेश में है और वहीं उसने शादी भी कर ली है। हम साथ ही पढ़े थे। स्कूल से निकलने पर कुछ सहेलियां छूट जाती थीं और कॉलेज के बाद तो कौन कहाँ गया, किसकी कहाँ शादी हुई, कुछ अता-पता ही नहीं रहता था। उस समय ‘फेसबुक’ तो थी नहीं। फिर से ध्यान उसकी ओर ही चला गया। तब तक उसने ही मुझे देख लिया, बड़ी नफासत से मुझसे गले मिली – ‘हाय निशा, बहुत अच्छा लगा यार तुम मिल गईं, कहाँ रहती हो तुम ? कितने सालों बाद हम मिल रहे हैं ना!‘ ना जाने कितनी बातें उसने उस पल बोल दीं। उसके पास से परफ्यूम की तेज गंध आ रही थी। चेहरे पर मेकअप की गहरी परत चढ़ी हुई थी जिससे वह अपनी उम्र छुपाने की भरसक कोशिश कर रही थी। स्टाइलिश बालों पर परमानेंट कलर किया हुआ था। अंग्रेजी के लहजे में हिंदी बोलती हुई वह बहुत बनावटी लग रही थी। मैं अब भी मानों सकते में थी, हिचकिचाते हुए मैंने धीरे से पूछ ही लिया – ‘तुम संस्कृति ही हो ना?’ उसे झटका लगा – ‘अरे! पहचाना नहीं क्या मुझे?’ मैंने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा – ‘बहुत बदल गई हो तुम, मेरे दिमाग में कॉलेज वाली सीधी – सादी संस्कृति का चेहरा बसा हुआ था।‘
वह खिलखिला कर हँस पड़ी – ‘यार! पर तुम वैसी की वैसी रहीं, ना लुक्स में बदलीं, ना सोच में। मैं बीस साल से कनाडा में रहती हूँ, जैसा देश वैसा भेष। मैंने नाम भी बदल लिया मुझे सब सैंडी बुलाते हैं, अच्छा है ना?’ मैंने ओढ़ी हुई मुस्कान के साथ कहा –‘हाँ, तुम पर सूट कर रहा है। अपने बच्चों को हिंदी सिखाई है?’ – मैंने पूछा। उसे मेरा प्रश्न बेमानी लगा, बोली – ‘क्या करेंगे हिंदी सीखकर? कौन- सा अब उन्हें यहाँ वापस आना है।‘
वह बोलती जा रही थी और मुझे उसके माता -पिता याद आ रहे थे, जो हमेशा अपना देश, बोली-भाषा, खान-पान में देसीपन के इर्द-गिर्द जिया करते थे। बच्चों को अपना देश, अपनी माटी के संस्कार दिए थे उन्होंने। खरे देसीपन के वातावरण में पली–बढ़ी संस्कृति सैंडी क्यों बन गई?
© डॉ. ऋचा शर्मा
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