श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा “तपिश”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 176 ☆
☆ लघुकथा – 🎪 तपिश 🎪 ☆
घर की छत पर हमेशा की तरह माही– आज भी बैठी अपनी माँ के साथ पढ़ाई कर रही थी, परंतु आज पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था। जो बात उसके दिलों दिमाग पर बढ़ते जा रही थी। वह अपनी माँ का अकेलापन, हमेशा देखती और उन्हें कामों में लगी देख माही आज पूछ बैठी – – “माँ मुझे आपसे एक बात पूछनी थी?” माँ ने कहा– “पूछो।” माही ने माँ की आंखों को झांकते हुए कही– “मेरे स्कूल के कार्यकाल में या कोई और भी मौके पर कभी भी मैंने पिताजी को हस्ताक्षर करते नहीं देखा। हमेशा आप ही मुझे प्रोत्साहन देकर पढ़ाती रही और आगे बढ़ने के नियम सिखाती रही।
माँ क्या सच में पिताजी मुझे अपनी बेटी नहीं मानते?” सीने में दबाये सामने अपने मासुम सवाल आज पूछ कर माही ने माँ को सोचने पर मजबूर कर दिया।
तार पर कपड़ा सुखाते अचानक माँ ने माही बिटिया की ओर देखकर बोली – – -” बेटा आज अचानक यह सवाल क्यों पूछ रही हो???” माही ने बड़े ही धीर गंभीर से अपनी माँ का आँचल हाथों से लेकर अपने सिर पर ढाँकती हुई बोली— “मैं जानती हूँ मेरे इस सवाल का जवाब आप नहीं दे सकेंगी।
अक्सर इस सवाल को लेकर मेरे स्कूल में अध्यापिका और प्रिंसिपल को बातें करते मैंने सुना है।”
आज माँ ने देखा माही बहुत समझदार और उस मानसिक वेदना से झुलस रही है जिसे वह बरसों से अपने सीने में दबाये हुए है।
समय आ गया है उसे सच बता दिया जाए। बड़े हिम्मत से उसने कहा — ” माही तुम मेरे प्यार की वह अमिट निशानी हो। जो देश सेवा के लिए अपनी जान निछावर कर सदा – सदा के लिए हमें छोड़कर चले गए।
समाज और परिवार की तानों को सुनते- सुनते तुम्हारी माँ एक जिंदा लाश बन चुकी थी।
परंतु उस समय तुम्हारे पिताजी जो अभी है, उन्होंने हाथ थामा। रिश्ते में तुम्हारे बड़े पिताजी लगते हैं। जिन्होंने अपनी शादी कभी नहीं की।
उन्होंने अपने भाई की अमानत को दुनिया की नजरों से बचा कर रखा है।”
दरवाजे के कोने में खड़े पिताजी सब सुन रहे थे। माही के सवाल ने आज उन्हें अंदर तक हिला दिया।
स्कूल में नए साल का आयोजन था। सभी अभिभावक खड़े थे। अपने-अपने बच्चों के साथ जाने के लिए। माही का नाम जैसे ही पुकारा गया। माँ उठती इसके पहले ही पिताजी ने इशारे से जो भी कहा, आज माँ बहुत प्रसन्नता से भर उठी। और पिताजी- माँ का हाथ थामे बीच में किसी मजबूत बंधन के साथ अपने परिवार के साथ जाते दिखे।
बरसों की तपिश आज भरी ठंडक में सुखद एहसास दे रही थी।
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© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈