डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “मैं, मैं और सिर्फ़ मैं”. “मैं” शब्द ही हमें हमारे हृदय में अपने आप अहं की भावना जागृत करता है। डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें ‘स्व ‘ से उठकर ‘अन्य ‘ के लिए कार्य करने के लिए प्रेरित करता है । इस आलेख का अंतिम कथन “दूसरों से उम्मीद रखने की अपेक्षा खुद से उम्मीद रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि इससे निराशा नहीं, आनंद की उपलब्धि होगी और सब मनोरथ पूरे होंगे। ” ही इस आलेख का सार है। डॉ मुक्त जी की कलम को सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य दर्ज करें )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 33☆
☆ मैं, मैं और सिर्फ़ मैं ☆
‘कोई इंसान खुश हो सकता है, बशर्ते वह ‘मैं, मैं और सिर्फ़ मैं’ कहना छोड़ दे और स्वार्थी न बने’ मैथ्यू आर्नल्ड का यह कथन इंगित करता है कि मानव को कभी फ़ुर्सत में अपनी कमियों पर अवश्य ग़ौर करना चाहिए… दूसरों को आईना भी दिखलाने की आदत स्वत: छूट जाएगी।
मानव स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, आजीवन दूसरों के दोष-अवगुण खोजने में व्यस्त रहता है। उसे अपने अंतर्मन में झांकने का समय ही कहां मिलता है? वह स्वयं को ही नहीं, अपने परिवारजनों को भी सबसे अधिक विद्वान, बुद्धिमान अर्थात् ख़ुदा से कम नहीं आंकता। सो! उसके परिवारजन भी सदैव दोषारोपण करने को अपने जीवन का लक्ष्य स्वीकारते हैं। इसलिए न परिवार में सामंजस्यता की स्थिति आ सकती है, न ही समाज में समरसता। चारों ओर विश्रंखलता व विषमता का दबदबा रहता है, क्योंकि मानव स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने में लीन रहता है और अपनी अहंनिष्ठता के कारण सबकी नज़रों से गिर जाता है। आपाधापी भरे युग में मानव एक-दूसरे को पछाड़ आगे बढ़ जाना चाहता है, भले ही उसे दूसरों की भावनाओं को रौंद कर आगे क्यों न बढ़ना पड़े। उसे दूसरों के अधिकारों के हनन से उसे कोई सरोकार नहीं होता। वह निपट स्वार्थांध मानव केवल अपने हित के बारे में सोचता है और अपने अधिकारों के प्रति सजग मानव अपने कर्त्तव्यों से अनभिज्ञ, दूसरों को उपेक्षा भाव से देखता है, जबकि अन्य के अधिकार तभी आरक्षित-सुरक्षित रह पाते हैं, जब वह अपने कर्त्तव्यों-दायित्वों का वहन करे। मैं, मैं और सिर्फ़ मैं की भावना से आप्लावित मानव आत्मकेंद्रित होता है…केवल अपनी अहंतुष्टि चाहता है तथा उसके लिए वह अपने संबंधों व पारिवारिक दायित्वों को तिलांजलि देकर निरंतर आगे बढ़ता जाता है, जहां उसकी काम-वासनाओं का अंत नहीं होता।… और संबंधों व सामाजिक सरोकारों से निस्पृह मानव एक दिन स्वयं को नितांत अकेला अनुभव करता है और ‘मैं’ के दायरे व व्यूह से बाहर आना चाहता है, स्वयं में स्थित होना चाहता है, परंतु अब किसी को उसकी दरक़ार नहीं रहती।
इस दौर में वह अपनी कमियों पर ग़ौर कर, अपने अंतर्मन मेंं झांकना चाहता है…आत्मावलोकन करना चाहता है। परंतु उसे अपने भीतर दोषों व बुराइयों का पिटारा दिखाई पड़ता है और वह स्वयं को काम, क्रोध, लोभ, मोह में लिप्त पाता है। इन विषम परिस्थितियों में वह उस व्यूह से बाहर निकल संबंधों- सरोकारों का महत्व समझ कर लौट जाना जाता है, उन अपनों में…अपने आत्मजों में, परिजनों में… जो अब उसकी अहमियत नहीं स्वीकारते, क्योंकि उन्हें उससे कोई अपेक्षा नहीं रहती। वैसे भी ज़िंदगी मांग व पूर्ति के सिद्धांत पर चलती है। हमें भूख लगने पर भोजन तथा प्यास लगने पर पानी की आवश्यकता होती है…और यथासमय स्नेह, प्रेम व सौहार्द की। सो! बचपन में माता के स्नेह व पिता के सुरक्षा-दायरे की दरक़ार व उनके सानिध्य की अपेक्षा रहती है। युवावस्था में उसे अपने जीवन-साथी अर्थात् केवल अपने परिवार से अपेक्षा रहती है, माता-पिता के संरक्षण की नहीं। सो! अपेक्षा व उपेक्षा दोनों सुख- दु:ख की भांति एक स्थान पर नहीं रह सकते। एक भाव है, तो दूसरा अभाव और इनमें सामंजस्य ही जीवन है।
जीवन जहां संघर्ष का पर्याय है, वहीं समझौता भी है, क्योंकि संघर्ष से हम वह सब नहीं प्राप्त कर पाते, जो प्रेम द्वारा पल भर में प्राप्त कर सकते हैं। आपका मधुर व्यवहार ही आपकी सफलता की कसौटी है, जिसके बल पर आप लाखों लोगों के प्रिय बन, उन के हृदय पर आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं। विनम्रता हमें नमन से सिखलाती है, शालीनता का पाठ पढ़ाती है, और विनम्र व्यक्ति विपदा-आपदा के समय पर अपना मानसिक संतुलन नहीं खोता… सदैव धैर्य बनाए रखता है। अहं उसके निकट आकर छूने का साहस भी नहीं जुटा पाता। वह मैं, मैं और सिर्फ़ मैं के शिकंजे से सदैव मुक्त रहता है और
आत्मावलोकन कर खुद में सुधार लाने की डगर पर चल पड़ता है। वह अपनी कमियों को दूर करने का भरसक प्रयास करता है और कबीर जी की भांति ‘बुरा जो देखन मैं चला, मोसों बुरा न कोय’ अर्थात् पूरे संसार में उसे खुद से बुरा कोई नहीं दिखाई पड़ता। इसी प्रकार सूर, तुलसी आदि को भी स्वयं से बड़ा पातकी-पापी ढूंढने पर भी नहीं मिलता। ऐसे लोग खुद को बदलते हैं, संसार को बदलने की अपेक्षा नहीं रखते।
कंटकों से आच्छादित मार्ग से सभी कांटो को चुनना अत्यंत दुष्कर है। हां! पावों में चप्पल पहन कर चलना सुविधाजनक है। सो! समस्या का समाधान खोजिए, खुद को बदलिए और दूसरों को बदलने में अपनी ऊर्जा नष्ट मत कीजिए। जब आपकी सोच व दुनिया को देखने का नज़रिया बदल जाएगा, आपको किसी में कोई दोष नज़र नहीं आयेगा और आप उस स्थिति में पहुंच जाएंगे… जहां आपको अनुभव होगा कि जब परमात्मा की कृपा के बिना एक पत्ता तक भी नहीं हिल सकता, तो व्यक्ति किसी का बुरा करने की बात सोच भी कैसे सकता है? सृष्टि-नियंता ही मानव से सब कुछ करवाता है… इसलिए वह दोषी कैसे हुआ? इस स्थिति में आपको दूसरों को आईना दिखलाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।
मानव गल्तियों का पुतला है। यदि हम अपने जैसा ढूंढने को निकलेंगे, तो अकेले रह जाएंगे। इसलिए दूसरों को उनकी कमियों के साथ स्वीकारना सीखिये … यही जीवन जीने का सही अंदाज़ है। वैसे भी आपको जीवन में जो भी अच्छा लगे, उसे सहेज- संजो लीजिए और शेष को छोड़ दीजिए। इस संदर्भ में आपकी आवश्यकता ही महत्वपूर्ण है और आवश्यकता आविष्कार की जननी है। जहां चाह, वहां राह… यह है, जीने का सही राह। यदि मानव दृढ़-प्रतिज्ञ व आत्म-विश्वासी है, तो वह नवीन राह ढूंढ निकालता है और इस स्थिति में उसका मंज़िल पर पहुंचना अवश्यंभावी है। सो! साहस व धैर्य का दामन थामे रखिए, मंज़िल अवश्य मिलेगी।
हां! अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आपको सत्य की राह पर चलना होगा, क्योंकि सत्य ही शिव है, कल्याणकारी है…और जो मंगलकारी है, वह सुंदर तो अवश्य ही होगा। इसलिए सत्य की राह सर्वोत्तम है। सुख-दु:ख तो मेहमान की भांति हैं, आते-जाते रहते हैं। एक की अनुपस्थिति में दूसरा दस्तक देता है। इसलिए जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं और जो ज़िंदगी में होता है, हमें भाता नहीं… वही हमारे दु:खों का मूल कारण है। जिस दिन हम दूसरों को बदलने की भावना को त्याग देंगे तथा खुद में सुधार लाने का मन बना लेंगे, दु:ख,पीड़ा,अवमानना, आलोचना, तिरस्कार आदि अवगुण सदैव के लिए नदारद हो जाएंगे। इसलिए परखिए नहीं, समझिए… यही जीने का सर्वोत्कृष्ट मार्ग है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि ‘जब चुभने लगे, ज़माने की नज़रों मेंं/ तो समझ लेना तुम्हारी चमक बढ़ रही है’ अर्थात् महान् व बुद्धिमान मनुष्य की सदैव आलोचना होती है। जब वे सामान्य लोगों की नज़रों का कांटा बन खटकने लगते हैं। इस स्थिति में मानव को निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि ग़ौरवान्वित अनुभव करना चाहिए कि ‘आपकी बढ़ती चमक व प्रसिद्धि देख लोग आपसे ईर्ष्या करने लगे हैं।’ सो! आपको निरंतर उसी राह पर अग्रसर होते जाना चाहिए।
ज़िंदगी हर पल नया इम्तहान लेती है, वहीं ज़िंदगी का सफ़र सुहाना है। कौन जानता है, अगले पल क्या होने वाला है? इसलिए चिंता, तनाव व अवसाद में स्वयं को झोंक कर अपना जीवन नष्ट नहीं करने का संदेश प्रेषित है। स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार ‘उठो! आगे बढ़ो और तब तक न रुको, जब तक आप मंज़िल नहीं पा लेते तथा मन में केवल एक विचार रखो… तुम जो पाना चाहते हो, उसे हर दिन दोहराओ। अंत में उस लक्ष्य के प्राप्ति आपको अवश्य हो जाएगी।’
अंत में मैं कहना चाहूंगी कि ‘सिर्फ़ मैं’ के भाव का दंभ मत भरो। आत्मावलोकन कर अपने अंतर्मन में झांको, दोष-दर्शन कर अपनी कमियों को सुधारने में प्रयासरत रहो… आप स्वयं को अवगुणों की खान अनुभव करोगे। दूसरों से अपेक्षा मत करो और जब आपके अंतर्मन में दैवीय गुण विकसित हो जाएं और आप लोगों की नज़रों में खटकने लगें, तो सोचो… आपका जीवन, आपका स्वभाव आपके कर्म अनुकरणीय है। आप जीवन में अपेक्षा-उपेक्षा के जंजाल से मुक्त रहो…कोई बाधा आपकी राह नहीं रोक पायेगी। यही मार्ग है खुश रहने का… परंतु यह तभी संभव है, जब आप स्व-पर से ऊपर उठ कर, नि:स्वार्थ भाव से परहित कार्यों में स्वयं को लिप्त कर, उन्हें दु:खों से मुक्ति दिलवा कर सुक़ून पाते हैं। सो! दूसरों से उम्मीद रखने की अपेक्षा खुद से उम्मीद रखना श्रेयस्कर है, क्योंकि इससे निराशा नहीं, आनंद की उपलब्धि होगी और सब मनोरथ पूरे होंगे।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
मो• न•…8588801878