श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 34 ☆
☆ सांस्कृतिक चेतना ☆
सबसे अधिक टीआरपी के लिए सीरियल्स में गाली-गलौज, लड़के-लड़कियों में हिंसक धक्कामुक्की को सहज घटनाओं के रूप में दिखाना और एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए ‘बहन जी’ को व्यंग और अपशब्द की तरह इस्तेमाल किया जाना अब आम हो गया है। मैं अवाक हूँ। भारतीय विचार और चेतना को क्या हो गया है? बेबात के विवाद, हंगामा और सामूहिक अराजकता के अभ्यस्त हम अपनी सांस्कृतिक चेतना के प्रति कैसे सुप्त हो चले हैं? कैसी मरघटी वीरानगी ओढ़ ली है हम सबने?
‘बहन’ शब्द में सहोदर पवित्रता अंतर्भूत है। लंबे समय शिक्षिकाओं के लिए ‘बहन जी’ शब्द उपयोग होता रहा। अब कॉलेज में भारतीय परिधान धारण करने वाली लड़कियों को ‘बहन जी’ कहा जाता है। भयावह चित्र! अपने अस्तित्व, अपनी चेतना के प्रति वितृष्णा नहीं अपितु विद्वेष और उपहास कहाँ ले जाकर खड़ा करेगा? क्या हो चला है हमें?
इसका सबसे बड़ा कारण है शिक्षा का पाश्चात्यीकरण। इस पाश्चात्यीकरण का माध्यम भारतीय भाषाएँ बनती तो शायद नुकसान कम होता। शिक्षा से भारतीय भाषाओं को एक षड्यंत्र के तहत बेदखल किया गया। लोकोक्ति है कि अँग्रेज ख़ामोश हँसी हँसता है। इस समय अँग्रेज़ी ख़ामोश हँसी हँस रही है। विचारधारा के दोनों ध्रुवों पर या दोनों ध्रुवों के बीच आप किसी भी विचारधारा के हों, यदि हिन्दी और भारतीय भाषाओं के समर्थक हैं तो यह *अभी नहीं तो कभी नहीं* का समय है।
अपने समय की पुकार सुनें। अपने-अपने घेरों से बाहर आएँ। भारतीय भाषाओं के आंदोलन को पांचजन्य-सा घोष करना होगा। शिक्षा का माध्यम केवल और केवल भारतीय भाषाएँ हों। इस उद्देश्य के लिए आर-पार की लड़ाई लड़ने को तैयार हों। कोई साथी है जो ‘बहन जी’ और ऐसे तमाम शब्द जिन्हें उपहास का पात्र बनाया जा रहा है, की अस्मिता की वैधानिक लड़ाई लड़ सके?
मित्रो! हम भारत में जन्मे हैं। हम भारत के नागरिक हैं। हमारी भाषा और सांस्कृतिक अस्मिता का संरक्षण, प्रचार और विस्तार हमारा मूलभूत अधिकार है। अधिकारों का दमन बहुत हो चुका, अब नहीं।
अनुरोध है कि साथ आएँ ताकि इसे एक बड़े और सक्रिय आंदोलन का रूप दे सकें। आप सब मित्रों का इस कार्य के लिए विशेष आह्वान है।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603