डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – ‘दुनियादारी‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 228 ☆
☆ कहानी – दुनियादारी ☆
विपिन भाई के पैरों के नीचे से जैसे ज़मीन खिसक गयी। दस दिन की बीमारी में ही पत्नी दुनिया से विदा हो गयी। दस दिन में विपिन भाई की दुनिया उलट-पुलट हो गयी। पहले एक हार्ट अटैक और फिर अस्पताल में ही दूसरा अटैक। विपिन भाई के लिए वे पन्द्रह दिन दुःस्वप्न जैसे हो गये। लगता था जैसे अपनी दुनिया से उठ कर किसी दूसरी भयानक दुनिया में आ गये हों।
विपिन भाई सुशिक्षित व्यक्ति थे। जीवन की क्षणभंगुरता और अनिश्चितता को समझते थे। कई धर्मग्रंथों को पढ़ चुके थे और जानते थे कि जीवन अपनी मर्जी के अनुसार नहीं चलता, खासकर अपने से अन्य प्राणियों का। लेकिन यह अनुभव कि जिस व्यक्ति के साथ पैंतीस वर्ष गुज़ार चुके हों, जिसे संसार के पेड़-पौधों,ज़र-ज़मीन, नातों-रिश्तों से भरपूर प्यार हो, वह अचानक सबसे विमुख हो इस तरह अदृश्य हो जाएगा, हिला देने वाला था। लाख कोशिश के बावजूद विपिन इस आघात से दो-चार नहीं हो पा रहे थे।
विपिन भाई अपने घर में अपने दुख को लेकर भी नहीं बैठ सकते थे क्योंकि उनके दुख का प्रकट होना उनके बेटे बेटियों के दुख को बढ़ा सकता था। इसलिए वे सायास सामान्यता का मुखौटा पहने रहते थे ताकि बच्चे उनकी तरफ से निश्चिंत रह सकें।
पत्नी की मृत्यु के बाद कर्मकांड का सिलसिला चला। अब तेरहीं के साथ बरसी निपटाने का शॉर्टकट तैयार हो गया है ताकि वर्ष में शुभ कार्य चलते रहें। आजकल के नौकरीपेशा लड़कों के लिए तेरहीं तक रुकने का वक्त नहीं होता, पंडित जी से मृत्यु के तीन-चार दिन के भीतर सब कृत्य निपटाने का अनुरोध होता है। विपिन भाई के लिए यह सब अटपटा था, लेकिन यंत्रवत इन कामों के विशेषज्ञों के निर्देशानुसार करते रहे।
विपिन की पत्नी की मृत्यु का समाचार पढ़कर बहुत से लोग आये। कुछ सचमुच दुख- कातर, कुछ संबंधों के कारण रस्म-अदायगी के लिए। कहते हैं न कि धीरज,धर्म, मित्र और नारी की परीक्षा विपत्ति में होती है। कुछ लोग देर से आये, कारण अखबार में सूचना पढ़ने से चूक गये या शहर से बाहर थे। जो नहीं आये उनके नहीं आने का विपिन भाई ने बुरा नहीं माना। ज़िन्दगी के सफर में जो जितनी दूर तक साथ आ जाए उतना काफी मानना चाहिए। ज़्यादा की उम्मीद करना नासमझी है।
विपिन भाई अब नई स्थितियों से संगति बैठा रहे थे और पुरानी स्मृतियों को बार-बार कुरेदने से बचते थे। पत्नी का प्रसंग घर में उठे तो उसे ज़्यादा खींचते नहीं थे, अन्यथा बाद में अवसाद घेरता था। अब भी सड़क पर चलते कई ऐसे लोग मिल जाते थे जो सड़क पर ही सहानुभूति जता लेना चाहते थे। फिर वही बातें कि सब कैसे हुआ, कहाँ हुआ, फिर अफसोस और हमदर्दी। विपिन को ऐसे राह-चलते ज़ख्म कुरेदने वालों से खीझ होती थी। जब घर नहीं आ सके तो राह में मातमपुर्सी का क्या मतलब?
एक व्यक्ति जिसका न आना उन्हें कुछ खटकता था वह दयाल साहब थे। एक सरकारी विभाग में बड़े अफसर थे। मुहल्ले के कोने पर उनका भव्य बंगला था। दुनियादार आदमी थे। शहर के महत्वपूर्ण आयोजनों में वे ज़रूर उपस्थित रहते थे। फेसबुक पर रसूखदार लोगों के साथ फोटो डालने का उन्हें ज़बरदस्त शौक था। विपिन को भी अक्सर सुबह पार्क में मिल जाते थे।
मुस्कुराकर अभिवादन करते। जब उनका प्रमोशन हुआ तब उन्होंने घर पर पार्टी का आयोजन किया था। विपिन को भी आमंत्रित किया था। हाथ मिलाते हुए सब से कह रहे थे, ‘क्लास वन में आ गया हूँ।’
कुछ दिन बाद वे विपिन के घर आ गये थे। बोले, ‘नयी कार खरीदी है। आइए, थोड़ी राइड हो जाए।’ मँहगी गाड़ी थी। रास्ते में बोले, ‘नये स्टेटस के हिसाब से पुरानी गाड़ी जम नहीं रही थी, इसलिए यह खरीदी।’ फिर हँसकर बोले, ‘लोन पर खरीदी है ताकि इनकम टैक्स का नोटिस न आ जाए। वैसे पूछताछ तो अभी भी होगी।’
विपिन की पत्नी की मृत्यु के बाद दयाल साहब अब तक विपिन के घर नहीं आये थे। विपिन को कुछ अटपटा लग रहा था। एक दिन जब वे स्कूटर पर दयाल साहब के बंगले से गुज़र रहे थे तब वे गेट पर नज़र आये, लेकिन विपिन को देखते ही गुम हो गये। एक और दिन वे विपिन को एक मॉल में नज़र आये, लेकिन उन्हें देखते ही वे भीड़ में ग़ायब हो गये। विपिन को इस लुकाछिपी का मतलब समझ में नहीं आया।
दिन गुज़रते गये और विपिन की पत्नी की मृत्यु को लगभग दो माह हो गये। परिवार अब बहुत कुछ सामान्य हो गया था। अब मातमपुर्सी के लिए किसी के आने की संभावना नहीं थी। विपिन चाहते भी नहीं थे कि अब कोई उस सिलसिले में आये।
उस शाम विपिन ड्राइंग रूम में थे कि दरवाज़े की घंटी बजी। खुद उठकर देखा तो दरवाज़े पर दयाल साहब थे। हल्की ठंड में शाल लपेटे। सिर पर बालों वाली टोपी। बगल में पत्नी। बिना एक शब्द बोले दयाल साहब, आँखें झुकाये, विपिन के बगल से चलकर अन्दर सोफे पर बैठ गये। घुटने सटे, हथेलियाँ घुटनों पर और आँखें झुकीं। पाँच मिनट तक वे मौन, आँखें झुकाये, बीच बीच में लंबी साँस छोड़ते और बार बार सिर हिलाते, बैठे रहे। उनके बगल में उनकी पत्नी भी मौन बैठी थीं। विपिन भाई भी स्थिति के अटपटेपन को महसूसते चुप बैठे रहे।
पाँच मिनट के सन्नाटे के बाद दयाल जी ने सिर उठाया, करुण मुद्रा बनाकर बोले, ‘इसे कहते हैं वज्रपात। इससे बड़ी ट्रेजेडी क्या हो सकती है। जिस उम्र में पत्नी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है उसी उम्र में उनका चले जाना। बहुत भयानक। हॉरिबिल।’
विपिन भाई को उनकी मुद्रा और बातों से तनाव हो रहा था। वे कुछ नहीं बोले।
दयाल साहब बोले, ‘मैंने तो जब सुना, मैं डिप्रेशन में चला गया। आपकी मिसेज़ को पार्क में घूमते देखता था। शी लुक्ड सो फिट, सो चियरफुल। मैंने तो इनसे कह दिया कि दुनिया जो भी कहे, मैं तो अभी दस पन्द्रह दिन विपिन जी के घर नहीं जा पाऊँगा। मुझ में हिम्मत नहीं है। आई एम वेरी सेंसिटिव। इस शॉक से बाहर आने में मुझे टाइम लगेगा।’
वे फिर सिर झुका कर खामोश हो गये। विपिन भाई उनकी नौटंकी देख खामोश बैठे थे। उन्हें लग रहा था कि यह जोड़ा यदि आधा पौन घंटा और बैठा तो उनका ब्लड-प्रेशर बढ़ने लगेगा। लेकिन दयाल साहब उठने के मूड में नहीं थे। वे अपनी अभी तक की अनुपस्थिति की पूरी सफाई देने और उसकी भरपाई करने के इरादे से आये थे। अब उन्होंने अपने उन मित्रों-रिश्तेदारों के किस्से छेड़ दिये थे जो विपिन की पत्नी की ही तरह हार्ट अटैक की चपेट में आकर दिवंगत हो गये थे या बच गये थे।
समय लंबा होते देख विपिन ने औपचारिकतावश चाय के लिए पूछा तो दयाल जी ने हाथ उठाकर जवाब दिया, ‘अरे राम राम, अभी चाय वाय कुछ नहीं। चाय पीने के लिए फिर आएँगे।’
समय बीतने के साथ विपिन का दिमाग पत्थर हो रहा था। तनाव बढ़ रहा था। यह मुलाकात उनके लिए सज़ा बन गयी थी।
पूरा एक घंटा गुज़र जाने के बाद दयाल साहब ने एक लंबी साँस छोड़ी और फिर खड़े हो गये। विपिन भाई की तरफ दुखी आँखों से हाथ जोड़े और धीरे-धीरे बाहर की तरफ चले। विपिन भाई उनके पीछे पीछे चले।
दरवाज़े पर पहुँचकर दयाल साहब मुड़े और विपिन भाई के कंधे से लग गये। बोले, ‘विपिन भाई, हम आपके दुख में हमेशा आपके साथ हैं। यू कैन ऑलवेज़ डिपेंड ऑन मी। आधी रात को भी बुलाओगे तो दौड़ा चला आऊँगा। आज़मा लेना।’
वे इतनी देर चिपके रहे कि विपिन का दम घुटने लगा। अलग हुए तो विपिन की साँस वापस आयी। विदा करके विपिन भाई वापस कमरे में आये तो थके से सोफे पर बैठ गये। हाथ से माथा दबाते हुए बेटी से बोले, ‘ये लोग अब क्यों आते हैं? इन्हें समझ में नहीं आता कि ये पहले से ही परेशान आदमी पर अत्याचार करते हैं। ये कैसी हमदर्दी है?’
फिर बोले, ‘मुझे एक सरदर्द की गोली दे दो और थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ दो।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈