श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 229 ☆ सदाहरी
किसी आयोजन से लौटा हूँ। हाथ में आयोजन में मिला पुष्पगुच्छ है। पुष्पगुच्छ घर में नियत स्थान पर रख देता हूँ।
दैनिक आपाधापी में ध्यान ही नहीं रहा और तीन दिन बीत गए। चौथे दिन गुच्छ पर दृष्टि पड़ी। गुच्छ लगभग सूख चुका है। देखता हूँ कि छोटे-छोटे श्वेत पुष्पों के समूह के बीचो-बीच कुछ गुलाब फँसा कर रखे गए थे। वे पूरी तरह पुष्पित हुए बिना ही सूखने की कगार पर हैं। पुष्पों को एक जगह एक आकार में टिकाए रखने के लिए कसकर टेप चिपकाया गया है। टेप के बंधन से मुक्त कर गुच्छ के पुष्पों को एक छोटे खाली गमले में रखकर थोड़ा जल छिड़कता हूँ। खुली हवा में साँस लेने के साथ धूप और जल मिलने से संभवत: उनका जीवन दो-तीन दिन और बढ़ जाए।
विचार शृंखला यही से आरंभ हुई। कितने लोगों का जीवन प्रतिकूलता में ही बीत जाता है। उनके बंधन भी इस टेप की तरह उन्हें बांधे रखते हैं। इनमें थोपे हुए, मानसिक, वैचारिक सभी प्रकार के बंधन होते हैं। स्त्री, पुरुष दोनों इस प्रतिकूलता के शिकार हैं। तथापि अन्यान्य कारणों से स्त्रियों को प्रतिकूलता का दंश अधिक भोगना पड़ता है।
स्त्री मायके की माटी से निकालकर ससुराल की माटी में रोपी जाने वाली बेल है। अधिकांश समय नए स्थान, नई परिस्थितियों, नए क्षेत्र की माटी के तत्वों से संतुलन बैठाने का समय दिए बिना ही बेल से जड़ें जमाने और पल्लवित होते रहने की अपेक्षा कर ली जाती है। जबकि बहुधा उसकी जड़ें मिट्टी की तह तक पहुँच ही नहीं पातीं। पुष्पगुच्छ के गुलाब की तरह उसका विकास रुक जाता है।
दैनिक जीवन में ऐसी अनेक मुरझाई बेलों से आपका भी सामना हुआ होगा। एक ऐसी वरिष्ठ महिला मिलीं जिन्हें जीवन के छह दशक देख लेने के बाद भी सलवार-कुर्ता ना पहन सकने की कसक थी। उनके घोर रुढ़िवादी परिवार में इसकी अनुमति नहीं थी। अब उनकी बहू इच्छित वस्त्रों में रहती है पर वे जाने-अनजाने एक मानसिक बंधन स्वयं पर लाद चुकी हैं। स्वयं ही उससे मुक्त नहीं हो पा रहीं पर भीतर मुरझाई हुई इच्छा अब भी साँस ले रही है। स्त्रियों के संदर्भ को ही आगे बढ़ाएँ तो संभव है कि किसी स्त्री के मायके में भोजन में मिर्च- मसाला न के बराबर डाला जाता रहा हो। ससुराल में मिर्च मसाले के बिना भोजन की कल्पना ही नहीं की जाती। ऐसे में पहले कुछ महीने तो उसके लिए भोजन भी दूभर हो जाता है।
अपना परिवार छोड़कर एक नए परिवार में आई अकेली महिला की पसंद-नापसंद का सम्मान करना नए परिवार का दायित्व होता है। प्राय: होता उल्टा है और नए परिजनों की सारे आदतों का सम्मान करने का बोझ नवेली पर डाल दिया जाता है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्त्रियाँ निरंतर संघर्ष करती दिखाई देती है। पारिवारिक दायित्वों के चलते अनेक बार वे नौकरी में पदोन्नति को ठुकरा देती हैं ताकि स्थानांतरण ना हो और परिवार बंधा रह सके।
कंटकाकीर्ण पथ पर चलती स्त्रियों के लिए सुगम पगडंडी बनाने में हाथ बँटाइए। पुष्पित- पल्लवित होने के लिए उन्हें उर्वरा माटी मुहैया कराइए। जिसे दूसरे घर से लाए हैं, उसे आपके घर की होने, इस घर को अपना बनाने के लिए समय दीजिए।
स्त्रियाँ सदाहरी बेल हैं। सृष्टि में मनुष्य प्रजाति के सातत्य का बीड़ा उन्होंने उठा रखा है। इस सप्ताह महिला दिवस भी है। भारी-भरकम शाब्दिक जंजालों से बचते हुए उनका मार्ग निष्कंटक करने और उन्हें विकास के समुचित अवसर देने के लिए प्रयास करें। आइए, इन सदाहरी बेलों का सदा समुचित सम्मान करें।
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
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