श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे
(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना एक काव्य संसार है । आप मराठी एवं हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण ग़ज़ल “मुसाफिर ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 37☆
☆ मुसाफिर ☆
मैं मुसाफि़र तू मुसाफि़र, रास्ते अनजान हैं
आदमी हूँ आदमी की, बस यही पहचान है
आदमी बनकर रहा जो, जिंदगी में खु़श रहा
सारे मज़हब के दिवाने, मिट्टी के मेहमान हैं
क्यों बखेडा कर रहे हो, घर के अंदर में यहाँ
भारती है माँ हमारी, उस की हम संतान हैं
माँ के टुकडे करने वाले, देश के गद्दार तुम
आरती का बन चुके हम, बस तेरे सामान है
हिंदू , मुस्लिम, सिख, ईसाई, सब सिपाही हैं यहाँ
देश पे कुर्बान हो तुम, तुम पे हम कुर्बान हैं …
उन शहीदों को पूछो, देश पर जो मिट गये
धर्म से बढकर तिरंगा, इस वतन की शान है
आओ मेहनत को बनाएं, एक इज्जत का निशाँ
मुफ्त़ की रोटी पे पलते, कुछ यहाँ नादान हैं
© अशोक श्रीपाद भांबुरे
धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.
मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८