श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 36 ☆
☆ चिरमृतक ☆
-कल दिन बहुत खराब बीता।
-क्यों?
-पास में एक मृत्यु हो गई थी। जल्दी सुबह वहाँ चला गया। बाद में पूरे दिन कोई काम ठीक से बना ही नहीं।
-कैसे बनता, सुबह-सुबह मृतक का चेहरा देखना अशुभ होता है।
विशेषकर अंतिम वाक्य इस अंदाज़ में कहा गया था मानो कहने वाले ने अमरपट्टा ले रखा हो।
इस वाक्य को शुभाशुभ का सूत्र न बनाते हुए विचार करो। हर सुबह दर्पण में किसे निहारते हो? स्वयं को ही न!…कितने जन्मों की, जन्म- जन्मांतरों की यात्रा के बाद यहाँ पहुँचे हो…हर जन्म का विराम कैसे हुआ..मृत्यु से ही न! रोज चिरमृतक का चेहरा देखते हो! इसका दूसरा पहलू है कि रोज मर कर जी उठने वाले का चेहरा देखते हो। चिरमृतक या चिरजन्मा, निर्णय तुम्हें करना है।
स्मरण रहे, चेहरे देखने से नहीं, भीतर से जीने और मरने से टिकता और दिखता है जीवन। जिजीविषा और कर्मठता मिलकर साँसों में फूँकते हैं जीवन।
जीवन देखो, जीवन जियो।
© संजय भारद्वाज
( प्रातः 7.55 बजे, 4.6.2019)
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
चिरमृतक या चिरजन्मा-जिजीविषा और कर्मठता मिलकर साँसों में फूँकते हैं जीवन।??
वाह¡ सुंदर अभिव्यक्ति और मनुष्य रूप में जन्म लेने का विश्लेषण।सच में इस प्रकार के विचारों से समाज को उभरना ही होगा।कोई भी तो अमरत्व लेकर जन्म नहीं लेता!
चिरमृतक या चिरजन्मा…निर्णय तुम्हारा है मानव!!
चिंतक की चिंतन की ओर प्रेरित करती अभिव्यक्ति…साधुवाद।
सवेरे मृतक का चेहरा देखने से दिन का शुभाशुभ तय करने वाला भी तो अमरत्व प्राप्त व्यक्ति नहीं होता , क्या मालूम कितनी योनियों के बाद उसे मनुष्य जन्म मिला है , जो स्वयं मृत्यु के कगार पर खड़ा है , हाय रे जीने की इच्छा ! कर्म की महत्ता जाननेवाला व्यक्ति कभी अपनी जिजीविषा को ऐसे अभिव्यक्त नहीं कर सकता । तार्किक विरेचन संजय जी !