डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – दो कवियों की कथा ☆
कवि महोदय किसी काम से सात दिन से दूसरे शहर के होटल में ठहरे हुए थे। सात दिन से इस निष्ठुर शहर में कोई ऐसा नहीं मिला था जिसे वे अपनी कविताएँ सुना सकें। उनके पेट में कविताएं पेचिश जैसी मरोड़ पैदा कर रही थीं। सब कामों से अरुचि हो रही थी। दो चार दिन और ऐसे ही चला तो उन्हें बीमार पड़ने का खतरा नज़र आ रहा था।
कविता की प्रसूति-पीड़ा से श्लथ कवि जी एक श्रोता की तलाश में हातिमताई की तरह शहर का कोना कोना छान रहे थे। आखिरकार उन्हें वह एक पार्क के कोने में बेंच पर बैठा हुआ मिल गया और उनकी तलाश पूरी हुई। वह दार्शनिक की तरह सब चीज़ों से निर्विकार बैठा सिगरेट फूँक रहा था जैसे कि उसके पास वक्त ही वक्त है।
धड़कते दिल से कवि महोदय उसकी बगल में बैठ गये। धीरे धीरे उसका नाम पूछा। फिर पूछा, ‘कविता वविता पढ़ते हो?’
वह बोला, ‘जी हाँ, बहुत शौक से पढ़ता हूँ। ‘
कवि महोदय की जान में जान आयी। उनकी तलाश अंततः खत्म हुई थी।
वे बोले, ‘कौन कौन से कवि पढ़े हैं?’
उसने उत्तर दिया, ‘सभी पढ़े हैं—-निराला, पंत,दिनकर, महादेवी। ‘
कवि महोदय मुँह बनाकर बोले, ‘ये कहाँ के पुराने नाम लेकर बैठ गये। ये सब आउटडेटेड हो गये। कुछ नया पढ़ा है?’
‘जी हाँ, नया भी पढ़ता रहा हूँ। ‘
कवि महोदय कुछ अप्रतिभ हुए, फिर बोले, ‘नूतन कुमार चिलमन की कविताएँ पढ़ी हैं?’
वह सिर खुजाकर बोला, ‘जी,याद नहीं, वैसे नाम सुना सा लगता है। ‘
कवि महोदय पुनः. अप्रतिभ हुए, लेकिन यह वक्त हिम्मत हारने का नहीं था। उन्होंने कहा, ‘उच्चकोटि की कविता सुनना चाहोगे?’
वह उसी तरह निर्विकार भाव से बोला, ‘क्यों नहीं?’
कवि महोदय ने पूछा, ‘कितनी देर तक लगातार सुन सकते हो?’
वह बोला, ‘बारह घंटे तक तो कोई फर्क नहीं पड़ता। ‘
कवि महोदय को लगा कि झुककर उसके चरण छू लें। उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रखा, बोले, ‘आओ, मेरे होटल चलते हैं। ‘
वह बड़े आज्ञाकारी भाव से उनके साथ गया। होटल पहुँचकर कवि जी बोले, ‘तुम्हें हर घंटे पर चाय और बिस्किट मिलेंगे। सिगरेट जितनी चाहो, पी सकते हो। ठीक है?’
‘ठीक है। ‘
कवि जी ने परम संतोष के साथ सूटकेस से अपना पोथा निकाला और शुरू हो गये। वह भक्तिभाव से सुनता रहा। बीच बीच में ‘वाह’ और ‘ख़ूब’ भी बोलता रहा। जैसे जैसे कविता बाहर होती गयी, कवि महोदय हल्के होते गये। अन्त में उनका शरीर रुई जैसा हल्का हो गया। सात दिन का सारा बोझ शरीर से उतर गया।
चार घंटे के बाद कवि जी ने पोथा बन्द किया। वह उसी तरह निर्विकार भाव से चाय सुड़क रहा था। कवि जी विह्वल होकर बोले, ‘वैसे तो मैंने श्रेष्ठ कविता सुनाकर तुम्हें उपकृत किया है, फिर भी मैं तुम्हारा अहसानमंद हूँ कि तुमने बहुत रुचि से मुझे सुना। ‘
वह बोला, ‘अहसान की कोई बात नहीं है, लेकिन यदि आप सचमुच अहसानमंद हैं तो कुछ उपकार मेरा भी कर दीजिए। ‘
कवि जी उत्साह से बोले, ‘हाँ हाँ,कहो। तुम्हारे लिए तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ। ‘
जवाब में उसने अपने झोले में हाथ डालकर एक मोटी नोटबुक निकाली। कवि जी की आँखें भय से फैल गयीं, काँपती आवाज़ में बोले, ‘यह क्या है?’
वह बोला, ‘ये मेरी कविताएं हैं। मैं भी स्थानीय स्तर का महत्वपूर्ण कवि हूँ। ‘
कवि महोदय हाथ हिलाकर बोले, ‘नहीं नहीं, मैं तुम्हारी कविताएं नहीं सुनूँगा। ‘
वह कठोर स्वर में बोला, ‘मैंने चार घंटे तक आपकी कविताएं बर्दाश्त की हैं और उसके बाद भी सीधा बैठा हूँ। अब मेरी बारी है। शर्तें वही रहेंगी, हर घंटे पर चाय-बिस्किट और मनचाही सिगरेट। ‘
कवि जी उठकर खड़े हो गये, बोले, ‘मैं जा रहा हूँ। ‘
वह शान्त भाव से बोला, ‘देखिए मैं लोकल आदमी हूँ और कवि बनने से पहले मुहल्ले का दादा हुआ करता था। मैं नहीं चाहता कि हमारे शहर में आये हुए कवि का असम्मान हो। आप शान्त होकर मेरी कविताओं का रस लें। ‘
कवि महोदय हार कर पलंग पर लम्बे हो गये, बोले, ‘लो मैं मरा पड़ा हूँ। सुना लो अपनी कविताएं। ‘
वह बोला, ‘यह नहीं चलेगा। जैसे मैंने सीधे बैठकर आपकी कविताएं सुनी हैं उसी तरह आप सुनिए और बीच बीच में दाद दीजिए। ‘
कवि महोदय प्राणहीन से बैठ गये। मरी आवाज़ में बोले, ‘ठीक है। शुरू करो। ‘
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश