श्री श्याम खापर्डे
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “गर्मी ”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 176 ☆
☆ # “गर्मी” # ☆
गर्मी से बुरा हाल है
हर शख्स बेहाल है
तपती प्रचंड धूप से
झुलसी हुई चाल है
कहीं कहीं लू चल रही है
धरती ज्वाला सी जल रही है
नंगे पांव चलना मुश्किल है
हवायें आग उगल रही है
मजदूर पसीने से तरबतर है
उन्हें ना धूप ना लू से डर है
पेट की आग उनपर भारी है
भूख के आगे सब बेअसर है
गर्म गर्म हवाओं के झोंके हैं
पेड़ों की छांव उनको रोके है
जिनका ना कोई रैन बसेरा हो
उनके नसीब मे तो बस धोके हैं
चौराहे पर ठंडे पानी के प्याऊ है
व्यवस्था अच्छी पर काम चलाऊ है
समाज सेवा का दंभ भरते हैं
वर्ष भर जिनका आचरण बस खाऊ है
आजकल सियासत के अलग रंग है
देखकर हर कोई दंग है
सब कुछ दांव पर लगाकर
लड़ रहे जैसे जंग है
हर क्षेत्र मे नया मोड़ है
गुटबाजी और तोड़फोड़ है
तानाशाही चरम पर है
सौदेबाजी जी तोड़ है
कहीं सूरज की गर्मी
तो कहीं सियासत की गर्मी है
मतदाता चुप है
उसके व्यवहार मे नर्मी है
झूठी कसमें, खोखले वादों मे
शुरू से अंत तक छुपी बेशर्मी है
कहीं यह गर्मी व्यवस्था को जला ना दे ?
पिघलता हुआ लावा है
नींव को गला ना दे ?
शीतल जल की
फुहारों की बहुत जरूरत है
वर्ना यह गर्मी सब कुछ
राख में मिला ना दे ? /
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© श्याम खापर्डे
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