श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  मिलन मोशाय : 3

☆ कथा-कहानी # 103 –  मत बोल बच्चन : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

भीषण गर्मी में तपते हुये जब “असहमत” मोहल्ले के इलेक्ट्रीशियन दयाराम के घर पहुंचा तो दयाराम के (घर का)दरवाजा अंदर से बंद था और अंदर जुगाड़ से बने जर्जर खड़खड़ाते कूलर की ठंडी ठंडी हवा का आनंद लेते हुये इलेक्ट्रीशियन घोर निद्रा में लिप्त था।दयाराम का शौक तो पहलवानी और गुंडागर्दी था पर इससे तो घर गृहस्थी चलती नहीं तो किस्मत ने उसके हाथ में रामपुरी चाकू की जगह बिजली का टेस्टर थमा दिया था।रात देर तक, बारातघर में झालर ठीक करते करते भोर में घर लौटा था और सपने में खुद अपना भी “शाल श्रीफल” से होता सम्मान देख रहा था,तभी जर्जर और बड़ी मुश्किल से ईंटों के दम पर टिके कूलर के गिरने की आवाज ने उसे सपनीले शॉल- श्रीफल से ज़ुदा कर दिया।बाहर असहमत की कर्कश आवाज और दरवाजे पर जोरदार धक्कों ने न केवल उसकी नींद तोड़ दी बल्कि उसका कूलर भी धराशायी कर दिया।प्याज,टमाटर और इलेक्ट्रीशियन के भाव सीजन में उछाल मारते हैं और नखरेबाजी में ये दूल्हे के दोस्तों को भी मात देते हैं।

इस सुनामी से दयाराम पूरी तरह से निर्दयता से भर उठा और कमरे के अंदर के 30 डिग्री से बाहर खुले वातावरण में आने पर 45 डिग्री ने, उसका सामना असहमत से करा दिया जो बाहर तप तप के वैसे ही और गुस्से से भी लाल था।फिर हुई ज़ुबानी जंग इस तरह रही।

दयाराम : अबे दरवाजा क्यों तोड़ रहा था,घंटी नहीं दिखी तुझे।

असहमत :अबे,काम करने के सीजन में गधे बेचकर सोया पड़ा है और ऊपर से मुझे ताव दिखा रहा है।

दयाराम : काम अपनी मरजी से और अपने समय से करता हूँ चिलगोजे।खुद तो कुछ काम धंधा है नहीं, साला मुझे ज्ञान बांट रहा है।चल निकल यहाँ से।

दोनों ही एक दूसरे की तबियत से ‘बेइज्जती’ खराब किये जा रहे थे और तपता मौसम,जले में नमक के छींटे मार रहा था।वाकयुद्ध जारी था और असहमत ने दयाराम पर पहले दिव्यास्त्र का प्रयोग किया।

असहमत : साले ,रुक अभी ,मैं “भाई” को लेकर आता हूँ।

दयाराम : अबे भाई की धमकी किसे देता है,लेकर आ,दोनों की एक साथ ठुकाई करता हूँ।

असहमत : ठीक है, तो भागना नहीं, अभी भाई को लेकर आता हूँ।घर के बाहर ही रहना नहीं तो घर में घुसकर मारूंगा।

दयाराम : अबे बेवकूफ समझा है क्या, इतनी गर्मी में, मैं बाहर खड़ा रहूं और तेरा इंतजार करता रहूँ।तू लेकर आ अपने भाई को और  दरवाजा तोड़ने के बजाय बाहर लगी घंटी बजाना। फिर दोनों का सरकिट फ्यूज़ करता हूँ।

इस वाकयुद्ध को 1-1 पर ड्रा छोड़कर जब असहमत आगे बढ़ा तो उसकी रास्ते में ही अपने तथाकथित “भाई” से मुलाकात हो गई और पूरा किस्सा सुनकर “भाई” भूल गया कि वो किसी प्राइवेट बैंक का करारनामे पर नियुक्त वसूली (भाई) अधिकारी है।ये रेप्यूटेशन का सवाल था तो दोनों दयाराम के घर पर पहुंचे और जैसे ही असहमत ने घंटी बजाई,बिजली के झटके ने उसे पीछे हटा दिया।वसूली भाई की तरफ देखकर,असहमत ने कहा :इसकी घंटी में करेंट है.पहले कटआउट निकालता हूँ, फिर बजाता हूँ।

भाई: अबे, जब लाईट ही नहीं रहेगी तो घंटी कहाँ से बजेगी,दयाराम ने बदमाशी कर दी है।चल दूसरे इलेक्ट्रीशियन के पास चलते हैं।

भीतर दयाराम को सुनाते हुये ,असहमत ने कहा ;अपने आप को साला,थामस अल्वा एडीसन समझता है,तीन टुकड़ों में बांट के अलग अलग फेंक दूंगा।एक तरफ थामस जायेगा तो दूसरी तरफ अल्वा और तीसरी दिशा में एडीसन।

और अपने जुगाड़ से बने कूलर को ठीक करते हुए इलेक्ट्रीशियन दयाराम ये नहीं समझ पा रहा था कि जाते जाते आखिर क्यों, असहमत उसे ये “थामस अल्वा एडीसन” नाम की अनजान डिग्री से सम्मानित कर गया।

— समाप्त —

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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