श्री आशिष मुळे
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 46 ☆
☆ कविता ☆ “तुम मेरी दास्तां हो…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆
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कहां शुरू कहां खत्म हो
कितनी छोटी बडी गेहरी हो
या बस इक सवाल हो
तुम मेरी दास्तां हो
आयी हो जैसे बारिश हो
भिगोकर कुछ पल जाती हो
ख्वाहिशें अंकुरित करती
तुम मेरी दास्तां हो
लुभाने की जैसे अदा हो
चले जाने की इक आदत हो
जाकर भी मेरा हिस्सा हो
तुम मेरी दास्तां हो
कितनी बार जाकर आती हो
कुछ ना कुछ लिख जाती हो
दिल की इक किताब हो
तुम मेरी दास्तां हो
पढ़ने वाला क्या पढे तुझे
अनसुलझी इक पहेली हो
सुनाने वाला क्या सुनाए
तुम मेरी दास्तां हो
कभी जिंदगी कभी मौत हो
तकलीफ कभी तसल्ली हो
तहहयात जैसे गले पड़ी हो
तुम मेरी दास्तां हो
घूमने का इक नशा हो
अफसोस दुनियां गोल है
घूमकर यहीं पहुंचती हो
तुम मेरी दास्तां हो
सुनो, जो सुनना चाहती हो
हरबार अलग हो
मगर मेरी बस तुम ही हो
तुम मेरी दास्तां हो….
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© श्री आशिष मुळे
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈