डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख कलम से अदब तक। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 236 ☆

☆ कलम से अदब तक… ☆

‘अदब सीखना है तो कलम से सीखो; जब भी चलती है, सिर झुका कर चलती है।’ परंतु आजकल साहित्य और साहित्यकारों की परिभाषा व मापदंड बदल गए हैं। पूर्वोत्तर परिभाषाओं के अनुसार…साहित्य में निहित था…साथ रहने, सर्वहिताय व सबको साथ लेकर चलने का भाव, जो आजकल नदारद हो गया है। परंतु मेरे विचार से तो ‘साहित्य एहसासों व जज़्बातों का लेखा-जोखा है; भावों और संवेदनाओं का झरोखा है और समाज के कटु यथार्थ को उजागर करना साहित्यकार का दायित्व है।’

साहित्य और समाज का चोली-दामन का साथ है। साहित्य केवल समाज का दर्पण ही नहीं, दीपक भी है और समाज की विसंगतियों- विश्रृंखलताओं का वर्णन करना, जहां साहित्यकार का नैतिक दायित्व है; उसके लिए समाधान सुझाना व उपयोगिता दर्शाना भी उसका प्राथमिक दायित्व है। परंतु आजकल साहित्यकार अपने दायित्व का निर्वाह कहां कर रहे है…अत्यंत चिंतनीय है, शोचनीय है। महान् लेखक मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य की उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि ‘कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है.. ताक़तवर होती है’ अर्थात् जो कार्य तलवार नहीं कर सकती, वह लेखक की कलम की पैनी धार कर गुज़रती है। इसीलिए वीरगाथा काल में राजा युद्ध-क्षेत्र में आश्रयदाता कवियों को अपने साथ लेकर जाते थे और उनकी ओजस्विनी कविताएं सैनिकों का साहस व उत्साहवर्द्धन कर उन्हें विजय के पथ पर अग्रसर करती थीं। रीतिकाल में भी कवियों व शास्त्रज्ञों को दरबार में रखने की परंपरा थी तथा उनके बीच अपने राजाओं को प्रसन्न करने हेतु अच्छी कविताएं सुनाने की होड़ लगी रहती थी। श्रेष्ठ रचनाओं के लिए उन्हें स्वर्ण मुद्राएं भेंट की जाती थी। बिहारी का दोहा ‘नहीं पराग, नहीं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल/ अलि कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल’ द्वारा राजा जयसिंह को बिहारी ने सचेत किया गया था कि वे पत्नी के प्रति आसक्त होने के कारण, राज-काज में ध्यान नहीं दे रहे, जो राज्य के अहित में है और विनाश का कारण बन सकता है। इसी प्रकार भक्ति काल में कबीर व रहीम के दोहे, सूर के पद, तुलसी की रामचरितमानस के दोहे- चौपाइयां गेय हैं, समसामयिक हैं, प्रासंगिक हैं और प्रात:-स्मरणीय हैं। आधुनिक काल को भी भक्तिकालीन साहित्य की भांति विलक्षण और समृद्ध स्वीकारा गया है।

सो! सत्-साहित्य वह कहलाता है, जिसका प्रभाव दूरगामी हो; लम्बे समय तक बना रहे तथा वह  परोपकारी व मंगलकारी हो; सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् के विलक्षण भाव से आप्लावित हो। प्रेमचंद, शिवानी, मनु भंडारी, मालती जोशी, निर्मल वर्मा आदि लेखकों के साहित्य से कौन परिचित नहीं है? आधुनिक युग में भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, निराला, बच्चन, नीरज, भारती आदि का सहित्य अद्वितीय है, शाश्वत है, समसामयिक है, उपादेय है। आज भी उसे भक्तिकालीन साहित्य की भांति उतनी तल्लीनता से पढ़ा जाता है; जिसका मुख्य कारण है…साधारणीकरण अर्थात् जब पाठक ब्रह्मानंद की स्थिति तक पहुंचने के पश्चात् उसी मन:स्थिति में रहना पसंद करता है तथा उस स्थिति में उसके भावों का विरेचन हो जाता है…यही भाव-तादात्म्य ही साहित्यकार की सफलता है।

साहित्यकार अपने समाज का यथार्थ चित्रण करता है; तत्कालीन  समाज के रीति-रिवाज़, वेशभूषा, सोच, धर्म आदि को दर्शाता है…उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों का दिग्दर्शन कराता है… वहीं समाज में व्याप्त बुराइयों को प्रकाश में लाना तथा उनके उन्मूलन के मार्ग दर्शाना…उसका प्रमुख दायित्व होता है। उत्तम साहित्यकार संवेदनशील होता है और वह अपनी रचनाओं के माध्यम से, पाठकों की भावनाओं को उद्वेलित व आलोड़ित करता है। समाज में व्याप्त बुराइयों की ओर उनका ध्यान आकर्षित कर जनमानस  के मनोभावों को झकझोरता, झिंझोड़ता व सोचने पर विवश कर देता है कि वे ग़लत दिशा की ओर अग्रसर हैं, दिग्भ्रमित हैं। सो! उन्हें अपना रास्ता बदल लेना चाहिए। सच्चा साहित्यकार मिथ्या लोकप्रियता के पीछे नहीं भागता; न ही अपनी कलम को बेचता है; क्योंकि वह जानता है कि कलम का रुतबा संसार में सबसे ऊपर होता है। कलम सिर झुका कर चलती है, तभी वह इतने सुंदर साहित्य का सृजन करने में समर्थ है। इसलिए मानव को उससे अदब व सलीका सीखना चाहिए तथा अपने अंतर्मन में विनम्रता का भाव जाग्रत कर, सुंदर व सफल जीवन जीना चाहिए…ठीक वैसे ही जैसे फलदार वृक्ष सदैव झुक कर रहता है तथा मीठे फल प्रदान करता है। इन कहावतों के मर्म से तो आप सब अवगत होंगे… ‘अधजल गगरी, छलकत जाए’ तथा ‘थोथा चना, बाजे घना’ मिथ्या अहं भाव को प्रेषित करते हैं। इसलिए नमन व मनन द्वारा जीवन जीने के सही ढंग व महत्व को प्रदर्शित दिया गया है। मन से पहले व मन के पीछे न लगा देने से विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न नहीं होती, बल्कि नमन व मनन एक- दूसरे के पूरक हो जाते हैं। वैसे भी इनका चोली-दामन का साथ है। एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन है। यह सामंजस्यता के सोपान हैं और सफल जीवन के प्रेरक व आधार- स्तंभ हैं।

प्रार्थना हृदय का वह सात्विक भाव है; जो ओंठों तक पहुंचने से पहले ही परमात्मा तक पहुंच जाती है… परंतु शर्त यह है कि वह सच्चे मन से की जाए। यदि मानव में अहंभाव नहीं है, तभी वह उसे प्राप्त कर सकता है। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है, केवल अपनी-अपनी हांकता है तथा दूसरे के अस्तित्व को नकार उसकी अहमियत नहीं स्वीकारता। सो! वह आत्मजों, परिजनों व परिवारजनों से बहुत दूर चला जाता है। परंतु एक लंबे अंतराल के पश्चात् समय के बदलते ही वह अर्श से फ़र्श पर पर आन पड़ता है और लौट जाना चाहता है…अपनों के बीच, जो सर्वथा संभव नहीं होता। अब उसे प्रायश्चित होता है… परंतु गुज़रा समय कब लौट पाया है? इसलिए मानव को अहं को त्याग, किसी भी हुनर पर अभिमान न करने की सीख दी गई है, क्योंकि पत्थर की भांति अहंनिष्ठ व्यक्ति भी अपने ही बोझ से डूब जाता है, परंतु निराभिमानी मनुष्य संसार में श्रद्धेय व पूजनीय हो जाता है।

‘विद्या ददाति विनयम्’ अर्थात् विनम्रता मानव का आभूषण है और विद्या हमें विनम्रता सिखलाती है… जिसका संबंध संवेदनाओं से होता है। संवेदना से तात्पर्य है… सम+वेदना… जिसका अनुभव वही व्यक्ति कर सकता है, जिसके हृदय में स्नेह, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता, करुणा, त्याग आदि भाव व्याप्त हों…जो दूसरे के दु:ख की अनुभूति कर सके। परंतु यह बहुत टेढ़ी खीर है…दुर्लभ व दुर्गम मार्ग है तथा उस स्थिति तक पहुंचने के लिए वर्षों की साधना अपेक्षित है। जब तक व्यक्ति स्वयं को उसी भाव-दशा में अनुभव नहीं करता; उनके सुख-दु:ख में अपनत्व भाव व आत्मीयता नहीं दर्शाता …अच्छा इंसान भी नहीं बन सकता; साहित्यकार होना, तो बहुत दूर की बात है; कल्पनातीत है।

आजकल समाजिक व्यवस्था पर दृष्टिपात करने पर लगता है कि संवेदनाएं मर चुकी हैं, सामाजिक सरोकार अंतिम सांसें ले रहे हैं और इंसान आत्म-केंद्रित होता जा रहा है। त्रासदी यह है कि वह निपट स्वार्थी इंसान अपने अतिरिक्त किसी अन्य के बारे में सोचता ही कहां है? सड़क पर पड़ा घायल व्यक्ति जीवन-मृत्यु से संघर्ष करते हुए सहायता की ग़ुहार लगाता है, परंतु संवेदनशून्य व्यक्ति उसके पास से नेत्र मूंदे निकल जाता हैं। हर दिन चौराहों पर मासूमों की अस्मत लूटी जाती है और दुष्कर्म के पश्चात् उन्हें तेज़ाब डालकर जला देने के किस्से भी आम हो गए हैं। लूटपाट, अपहरण, फ़िरौती, देह-व्यापार व मानव शरीर के अंग बेचने का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है। यहां तक कि चंद सिरफिरे अपने देश की सुरक्षा बेचने में भी कहां संकोच करते हैं?

परंतु कहां हो रहा है… ऐसे साहित्य का सृजन, जो समाज की हक़ीकत बयान कर सके तथा लोगों की आंखों पर पड़ा पर्दा हटा सके। आजकल तो सबको पद-प्रतिष्ठा, नाम-सम्मान व रूतबा चाहिए, वाहवाही सबकी ज़रूरत है; जिसके लिए वे सब कुछ करने को तत्पर हैं, आतुर हैं अर्थात् किसी भी सीमा तक झुकने को तैयार हैं। यदि मैं कहूं कि वे साष्टांग दण्डवत् प्रणाम तक करने को प्रतीक्षारत हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

सो! ऐसे आक़ाओं का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है, जो नये लेखकों को सुरक्षा प्रदान कर, मेहनताने के रूप में खूब सुख-सुविधाएं वसूलते हैं। सो! ऐसे लेखक पलक झपकते अपनी पहली पुस्तक के प्रकाशित होते ही बुलंदियों को छूने लगते हैं, क्योंकि उन आक़ाओं का वरद्-हस्त नये लेखकों पर होता है। सो! उन्हें फर्श से अर्श पर आने में समय लगता ही नहीं। आजकल तो पैसा देकर आप राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय अथवा अपना मनपसंद सम्मान खरीदने को स्वतंत्र हैं। सो! पुस्तक के लोकार्पण करवाने की भी बोली लगने लगी है। आप पुस्तक मेले में अपने मनपसंद सुविख्यात लेखकों द्वारा अपनी पुस्तक का लोकार्पण करा कर प्रसिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। अनेक विश्व-विद्यालयों द्वारा पीएच•डी• व डी•लिट्• की मानद उपाधि प्राप्त कर, अपने नाम से पहले डॉक्टर लगाकर, वर्षों तक मेहनत करने वालों के समकक्ष या उनसे बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर उन्हें धूल चटा सकते हैं; नीचा दिखा सकते हैं। परंतु ऐसे लोग अहंनिष्ठ होते हैं। वे कभी अपनी ग़लती कभी स्वीकार नहीं करते, बल्कि दूसरों पर आरोप-प्रत्यारोप लगा कर अहंतुष्टि कर सुक़ून पाते हैं। यह सत्य है कि जो लोग अपनी ग़लती नहीं स्वीकारते, किसी को अपना कहां मानेंगे? सो! ऐसे लोगों से सावधान रहने में ही सब का हित है।

जैसे कुएं में उतरने के पश्चात् बाल्टी झुकती है और भरकर बाहर निकलती है…उसी प्रकार जो इंसान झुकता है; कुछ लेकर अथवा प्राप्त करने के पश्चात् ही जीवन में पदार्पण करता है। यह अकाट्य सत्य है कि संतुष्ट मन सबसे बड़ा धन है। परंतु ऐसे स्वार्थी लोग और…और…और की चाह में अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। वैसे बिना परिश्रम के प्राप्त फल से आपको क्षणिक प्रसन्नता तो प्राप्त हो सकती है, परंतु उससे संतुष्टि व स्थायी संतोष प्राप्त नहीं हो सकता। इससे भले ही आपको पद-प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाए; परंतु सम्मान नहीं मिलता। अंतत: सत्य व हक़ीक़त के उजागर हो जाने के पश्चात् आप दूसरों की नज़रों में गिर जाते हैं।

‘सत्य कभी दावा नहीं करता कि मैं सत्य हूं और झूठ सदा शेखी बघारता हुआ कहता है कि ‘मैं ही सत्य हूं। परंतु एक अंतराल के पश्चात् सत्य लाख परदों के पीछे से भी सहसा प्रकट हो जाता है।’ इसलिए सदैव मौन रह कर आत्मावलोकन कीजिए और तभी बोलिए; जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों। सो! मनन कीजिए, नमन स्वत: प्रकट हो जाएगा। जीवन में झुकने का अदब सीखिए; मानव-मात्र के हित के निमित्त समाजोपयोगी लेखन कीजिए…सब के दु:ख-दर्द की अनुभूति कीजिए। वैसे संकट में कोई नज़दीक नहीं आता, जबकि दौलत के आने पर दूसरों को आमंत्रण देना नहीं पड़ता…लोग आप के इर्दगिर्द मंडराने लगते हैं। इनसे बच के रहिए…प्राणी-मात्र के हित में सार्थक सृजन कीजिए…यही ज़िंदगी का सार है; जीने का मक़सद है। सस्ती लोकप्रियता के पीछे मत भागिए …इससे आप की हानि होगी। इसलिए सब्र व संतोष रखिए, क्योंकि वह आपको कभी भी गिरने नहीं देता… सदैव आपकी रक्षा करता है। ‘चल ज़िंदगी नयी शुरुआत करते हैं/ जो उम्मीद औरों से थी/ ख़ुद से करते हैं’… इन्हीं शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देती हूं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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