डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य रचना – एक मुलाकात। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 246 ☆

☆ कहानी – एक मुलाकात

अचानक सुबह सात बजे टेलीफोन की घंटी बजी। सेठी जी ने फोन उठाया– ‘हलो’।

‘सेठी जी हैं?’

‘बोल रहा हूँ। ‘

‘नमस्ते, मैं आपका मित्र बोल रहा हूँ। ‘

सेठी जी अचकचाए। सबेरे सबेरे यह कौन मित्र है? उन्होंने कहा, ‘माफ करें जी। मैंने पहचाना नहीं। ‘

‘अभी तो पाँच महीने ही हुए हैं। अभी से पहचानना बन्द कर दिया भैया?’

सेठी जी के दिमाग में कुछ कौंधा,बोले, ‘अरे जड़िया जी! माफ कीजिएगा, आवाज़ कुछ समझ में नहीं आ रही थी। ‘

‘इतनी जल्दी आवाज़ मत भूलो भैया। कुछ दिन याद किये रहो। ‘

सेठी जी संकुचित हुए,बोले, ‘कैसी बातें करते हैं? आप को भला कैसे भूल सकते हैं? इतना पुराना साथ है। कहिए, इतने सबेरे कैसे याद किया?’

‘याद करने के लिए कोई वजह ज़रूरी है क्या भाई? याद तो बस याद है। जब उसकी मरजी हुई, आ जाती है। ‘

सेठी जी कुछ और सकुचाये,बोले,  ‘बड़ी अच्छी बात है। आप हम सबको याद तो करते हैं। ‘

‘और क्या करें भैया? अब कुछ काम धाम तो रहा नहीं, इसलिए जिन्दगी में जो अच्छा वक्त गुजरा उसी की दिमाग में रिवाइंडिंग करते रहते हैं। ‘

‘ठीक कहा आपने। अच्छी बातों और अच्छे दोस्तों को याद करते रहना चाहिए। और सुनाइए। ‘

‘बस सब ठीक है। आज शाम को फुरसत है क्या? आपसे मिलना था। ‘

सेठी जी अचकचा गये। यह रिटायर्ड आदमी किसलिए मिलना चाहता है? रिटायर्ड आदमी से मिलना मतलब सब काम छोड़कर बिलकुल बेफिकर होकर बैठना होता है। अब जिन्दगी में इतनी बेफिक्री और इतना इत्मीनान कहाँ है कि फैलकर बातचीत की जा सके।

वे एक क्षण सोचकर बोले, ‘आज तो थोड़ा बिज़ी हूँ। आज गुरुवार है। आप इतवार को सुबह आइए न। इत्मीनान से  बातें होंगीं। चलेगा?’

‘सब चलेगा। यहाँ अब सब दिन बराबर हैं। क्या गुरुवार और क्या इतवार। ‘

‘तो फिर ठीक है। मैं इतवार को आपका इन्तज़ार करूँगा। ‘

‘बिलकुल ठीक। नौ बजे के करीब ठीक रहेगा?’

‘हाँ, हाँ, आइए। ‘

सेठी जी ने फोन रख दिया। फोन रखने के साथ मूड गड़बड़ हो गया। रिटायर्ड आदमी के साथ बैठना मतलब घंटा डेढ़-घंटा बरबाद करना। आधे घंटे तो बातचीत ठीक, फिर ज़बर्दस्ती वक्त के खालीपन को भरना। निरर्थक मुद्दे उठा उठाकर सामने रखते रहो। रिटायर्ड आदमी अप्रासंगिक हो जाता है, वह न वर्तमान के काम का रहता है, न  भविष्य के। वह बस इतिहास का हिस्सा बन जाता है। अब उससे क्या बातें करें और उसके सामने अपना कौन सा दुखड़ा रोयें? जिन्हें रोने के लिए कोई भी कंधा चाहिए उनके लिए ठीक है। बाकी जिन्हें काम-धाम करना है, भविष्य की योजनाएँ बनानी हैं, उनके लिए रिटायर्ड आदमी का संग-साथ किस काम का? रिटायर्ड आदमी तो अपने जैसों के गोल में ही शोभा देते हैं, जहाँ बैठकर वे गठिया, कब्ज और बहुओं की लापरवाही और अकर्मण्यता का रोना रोते रहते हैं।

सेठी जी  सोचते हैं अब ज़माना भी बदल गया। उनके बाप-दादा के ज़माने में परिचित और दोस्त घर में चाहे जब आते जाते रहते थे। शादी-ब्याह में रिश्तेदार हफ्तों पड़े रहते थे। घर में रोज़ शाम को महफिल लगती थी। दुनिया भर की बातें होती थीं, जिनके बारे में आज सोचना भी हास्यास्पद लगता है। अब आधे घंटे की खातिरदारी के बाद मेहमान को भी अड़चन होने लगती है और मेज़बान को भी। अपनी दुनिया से बाहर निकलने की फुरसत नहीं है। सब अपने-अपने टापू में कैद हैं। इसलिए सेठी जी सोचते हैं कि जड़िया जी आएँगे तो उनसे क्या बातें होंगीं?

जड़िया जी ज़िन्दगी भर रहे भी अटपटे ही। न कभी ज़िन्दगी को व्यवस्थित किया, न कोई ख़ाका बनाया। दफ्तर में ज़िन्दगी गला दी, लेकिन शिकार फाँसने की विधि नहीं सीखी। जो भेंट-उपहार मिल गया, उसी में खुश हो लिये। न ज़मीन-ज़ायदाद बनायी, न शेयर वगैरः खरीदे। ज़िन्दगी को साधने की कला में फिसड्डी रहे। लेकिन इन बातों का महत्व उनकी समझ में कभी नहीं आया, न ही कभी अपने अनाड़ीपन पर उन्हें कोई अफसोस हुआ।

जड़िया जी के विदाई कार्यक्रम में तो हस्बमामूल उनकी तारीफ ही हुई थी। नौकरी और ज़िन्दगी से रुखसत होते आदमी के लिए भला बोलने का ही कायदा होता है। फिर जो लोग अपनी ज़िन्दगी बिना ज़्यादा दाँव-पेंच चलाये सीधे-सीधे गुज़ार देते हैं, उनके प्रति लोग भावुक भी हो जाते हैं।

विदाई कार्यक्रम के बाद सेठी जी को जड़िया जी बाज़ार में दो तीन बार दिखायी दिये थे। एक बार एक दुकान में साइकिल पर थैला लटकाये खड़े दिखे। एक बार और स्कूटर पर एक बच्चे को सामने खड़ा किये जाते दिखे। दोनों ने हाथ उठाकर एक दूसरे को अभिवादन किया। एक बार दफ्तर में भी दिखे थे। तब बस ‘कैसे हैं?’, ‘कैसे हैं?’ हुआ था। जड़िया जी से मिलने की कोई खास इच्छा सेठी जी को कभी नहीं हुई थी। रिटायर्ड आदमी से मिलने की इच्छा तभी होती है जब उससे कुछ काम पड़े, और रिटायर्ड आदमी के पास लोगों का काम कम ही अटकता है। वजह यह कि रिटायर्ड आदमी ज़िन्दगी के राजमार्ग से हटा हुआ होता है।

इसीलिए सेठी जी इस बात को लेकर परेशान हो गये कि जड़िया जी उनसे क्यों मिलना चाहते हैं। शायद कोई काम हो। सीधे-सादे आदमी के सामने ज़िन्दगी की दस झंझटें होती हैं। परिवार को अव्यवस्थित और अनियोजित रखने के परिणाम रिटायरमेंट के बाद पूरी शिद्दत से सामने आने लगते हैं। जड़िया जी ने कभी भविष्य की चिन्ता तो की नहीं। शायद कोई आर्थिक समस्या आ खड़ी हुई हो।

जड़िया जी दो चार हज़ार रुपये माँगने लगें तो क्या होगा? पहले से निर्णय कर लेना ठीक होगा। पैसे की तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन जड़िया जी लौटा न पाये, तब क्या होगा? इस संभावना पर विचार करने के बाद ही पैसा देना उचित होगा। वैसे तो जड़िया जी भले आदमी हैं, लेकिन लौटाने की स्थिति में न हुए तो क्या किया जा सकेगा? उनसे यह पूछना भी तो उचित नहीं होगा कि उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है और वह किस उद्देश्य से पैसे चाहते हैं।

सोचते-सोचते सेठी जी अशान्त हो गये। यह कहाँ की परेशानी आ गयी? बिना उद्देश्य के आदमी क्यों मिलना चाहता है? उन्हें रिटायर्ड आदमियों पर गुस्सा भी आया कि बेमतलब एक घर से दूसरे घर डोलते रहते हैं। अपने घर में बैठकर राम नाम भजें, सोई अच्छा। एक मन हुआ, इतवार को सुबह कहीं सटक लें। फिर सोचा, यह ठीक नहीं होगा। एक तो जड़िया जी को सफाई देना मुश्किल होगा, दूसरे इस तरह से जड़िया जी से कब तक बचेंगे? जिसे मिलना ही है, वह दुबारा आ जाएगा।

इतवार को सबेरे सेठी जी जड़िया जी का इन्तज़ार करते बैठे रहे। करीब सवा नौ बजे वे साइकिल पर आते दिखे। कपड़ों- लत्तों के बारे में उनका औघड़पन साफ दिखता था। कुर्ते की एक बाँह कुहनी के ऊपर चढ़ी थी, तो दूसरी नीचे तक लटकी थी। कॉलर एक तरफ उठा था, तो दूसरी तरफ दबा था।

गेट में घुसकर वे कुछ देर बाहर बिलम गये। सेठी जी ने झाँककर देखा तो वे साइकिल का हैंडल थामे, माली से बात करने और क्यारियों में उगे हुए पौधों के बारे में जानकारी लेने में मसरूफ थे। ‘ये कभी नहीं सुधरेंगे’, सेठी जी ने सोचा। अन्ततः जड़िया जी अन्दर आ ही गये। बहुत जोश से दोनों पुराने सहकर्मियों का मिलन हुआ। रिटायर्ड आदमी के स्वास्थ्य के बारे में पूछना सबसे पहले ज़रूरी होता है, सो सेठी जी ने किया। फिर दफ्तर की बातें छिड़ गयीं— साथियों की बातें, ऊपर के अधिकारियों की बातें और जो पहले रिटायर हो गये या ऊपर चले गये उनकी स्मृतियाँ।

सेठी जी से बात करते जड़िया जी तो भाव-विभोर थे, लेकिन सेठी जी के मन में खिंचाव था। वे भीतर से सावधान थे। जड़िया जी की बातें उन्हें असली बात के आसपास लगायी गयी फूल-पत्तियाँ लग रही थीं। उन्हें विश्वास था कि अन्ततः जड़िया जी कोई ना कोई माँग ज़रूर करेंगे। इसलिए उनका जोश और जड़िया जी की बातों पर छूटती उनकी हँसी बड़ी सीमा तक नकली थी। उन्होंने सोच रखा था कि अगर जड़िया जी पैसे की माँग करेंगे तो वे ज़्यादा से ज़्यादा हजार रुपया देकर मजबूरी ज़ाहिर कर देंगे ताकि अगर पैसा डूब भी जाए तो ज़्यादा न अखरे।

बात करते घंटा भर से ऊपर हो गया लेकिन जड़िया जी मतलब की बात पर नहीं आये। सेठी जी का सब्र का बाँध टूटने को आया। जब भी बातों में विराम आता, सेठी जी कुछ तनाव की स्थिति में आ जाते, यह सोचकर कि अब जड़िया जी के मन की बात प्रकट होगी। लेकिन फिर बातों का सिलसिला किसी दूसरी दिशा में मुड़ जाता। सेठी जी को खीझ होने लगी कि यह आदमी इतना ढोंग क्यों कर रहा है।

अन्ततः जड़िया जी कुर्सी से आधे उठे, बोले, ‘काफी वक्त हो गया। खूब आनन्द आया। अब आप भी अपना कामकाज निपटाइए। हम तो रिटायर्ड हैं। अपने पास वक्त ही वक्त है। ‘

सेठी जी अभी भी तनावमुक्त नहीं हुए थे। अब वे खुद ही बोल पड़े, ‘और मेरे लायक कोई काम हो तो बताइएगा। ‘

जड़िया जी बोले, ‘काम क्या? इतनी देर आपके साथ बैठकर मन हल्का कर लिया, इससे बड़ा काम और क्या हो सकता है?’

जड़िया जी चल दिए। सेठी जी पीछे पीछे चले। अब उनके मन में ग्लानि थी। जड़िया जी को ज़रूरतमन्द समझ कर ठीक से बात भी नहीं कर पाये। पूरे समय लगभग मुक्ति पाने के अन्दाज़ में बातें हुईं। कुछ ढीले होकर बात करते तो मज़ा आता। गलतफहमी पालने से अपने प्रति और जड़िया जी के प्रति अन्याय हो गया।

गेट पर आकर जड़िया जी ने साइकिल निकाली तो सेठी जी आजिज़ी के स्वर में बोले, ‘फिर आइए। अभी कुछ मज़ा नहीं आया। मन नहीं भरा। ‘

जड़िया जी हँसकर बोले, ‘फिर आ जाएँगे। रिटायर्ड आदमी को तो इशारा काफी है। आप एक बार बुलाएँगे तो हम दो बार आ जाएँगे। ‘

सेठी जी भावुक को गये। लगा जैसे गले में कुछ अटक रहा है। भाव-विभोर होकर उन्होंने जड़िया जी को अपनी बाँह में लपेट लिया। फिर देर तक खड़े, जड़िया जी की अटपटी काया को साइकिल पर दाहिने बाएँ झूलते, धीरे-धीरे विलीन होते देखते रहे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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