श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # १७ ☆

डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जीवन तो मिलता नहीं, हमको बारंबार।

ईश्वर ने हमको दिया, ये अमूल्य उपहार॥

मनुष्य चूँकि सामाजिक प्राणी है, अतः समाज के सर्वजनीन और सर्वकालीन सरोकारों की दृष्टि से आदर्श व्यक्ति और उसके साथ आदर्श व्यक्तित्व की कसौटी है। इस कसौटी पर खरे उतरने वाले व्यक्ति समाज के दिशादर्शक और सच्चे अर्थों में समाज के निर्माता होते हैं। जो विभिन्न माध्यमों से अपने इस महायज्ञ में निर्लिप्त भाव से संलग्न होते हैं। ऐसा ही एक व्यक्तित्व डॉक्टर श्री राम ठाकुर दादा के नाम से पहचाना जाता है।

कृतिकार रहे ना रहे, कृति जीवित रहती है जिसके माध्यम से कृतिकार अमर हो जाता है। हम स्मरण करते हैं स्वर्गीय डॉक्टर श्री राम ठाकुर ‘दादा’ को जो आज हमारे बीच नहीं हैं परंतु जिन्होंने कविता ‘ कहानी ‘लघु कथा’ व्यंग्य, उपन्यास, संस्मरण आदि अपना संपूर्ण साहित्य हमें दिया। हम उनके कृतज्ञ हैं निश्चित तौर पर दादा ने सद्‌कार्य करते हुए साहित्य सृजन किया। साहित्य समाज का दर्पण होता है और साहित्यकार एक सच्चा समाज सुधारक होता है विशाल व्यक्तित्व के धनी थे। ‘दादा’ यानि सिर्मौर।

संस्कारधानी जबलपुर के साहित्यकार -डॉक्टर श्री राम ठाकुर “दादा?

फूलों की सुगंध वायु के विपरीत नहीं जाती है परंतु मानव के गुणों की सुगंध चारों ओर जाती है।

व्यंग्यकार : डॉ. श्री राम ठाकुर “दादा” का लेखन परिवेश

जन्म :- 28 जनवरी 946 ग्राम बारंगी, तहसील सोहागपुर, जिला होशंगाबाद

शिक्षा: – एम.ए., पी.एच. डी. (संस्कृत), साहित्य रत्न (हिंदी)

सृजन :- व्यंग्य लेख, कविताएं, लघुकथाएं, उपन्यास, कहानियां

मध्य प्रदेश के रचनाधर्मियों की संपर्क संचयिका ‘हस्ताक्षर’ सृजनधर्मी, साहित्य अकादमी की हुजह॒ ऑफ इंडिया राइटर्स, एशिया इंटरनेशनल, की लर्नेंड इंडिया, हिंदी साहित्यकार संदर्भ कोष, ” हू ज हू ‘ इन मध्यप्रदेश हिंदी आदि परिचय ग्रंथों में उल्लेखा

पुस्तकें- दादा के छक्‍्के- हास्य व्यंग काव्य संग्रह, अभिमन्यु का सत्ताव्यूह- लघुकथा संग्रह, ऐसा भी होता है -व्यंग्य निबंध, पच्चीस घंटे- व्यंग्य उपन्यास” सृजन परिवेश,

मेरी प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाएं- गद्य व्यंग्य, प से पर्स, पिल्‍ला और पति -व्यंग्य लेख, दादा की रेल यात्रा- व्यंग्य खंडकाव्य, अफसर को नहीं दोष गुसाईं -व्यंग्य लेख, स्वतंत्रयोत्तर संस्कृत काव्य में हास्य व्यंग्य – शोध ग्रंथ, आत्म परिवेश, दांत दिखाने के- व्यंग्य लेख, मेरी प्रिय छब्बीस कहानियां -निजी कहानी संग्रह, मेरी एक सौ इक्कीस लघु कथाएं, बात पते की -व्यंग्य निबंध, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएं (गद्य)

संपादन- साहित्य निर्देशिका, पोपट, अभिव्यक्ति एवं दूरसंचार विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका नर्मदा संचार का संपादन

प्रसारण- दूरदर्शन, सिटी केबल, डायनामिक मीडिया से रचनाएं प्रसारित, जबलपुर, भोपाल, रायपुर, रीवा, छतरपुर, बालाघाट, जगदलपुर आकाशवाणी केंद्रों से रचनाएं प्रसारित।

पुरस्कार सम्मान और अलंकरण- मध्य प्रदेश साहित्य परिषद द्वारा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार, मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार, मध्य प्रदेश लेखक संघ द्वारा पुष्कर जोशी सम्मान, जबलपुर पत्रकार संघ द्वारा हरिशंकर परसाई स्मृति पुरस्कार, करवट कला परिषद भोपाल द्वारा रत्र भारती पुरस्कार, पत्रकार विकास मंच जबलपुर द्वारा परसाई सम्मान -95, मित्र संघ जबलपुर द्वारा विशिष्ट कवि सम्मान, अखिल भारतीय कला संस्कृति, साहित्य परिषद मथुरा उत्तर प्रदेश द्वारा साहित्य अलंकार सम्मान उपाधि » महाप्रबंधक जबलपुर दूरसंचार द्वारा हिंदी पुस्तक लेखक सम्मान, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच मुरादाबाद (उ. प्र.) द्वारा डॉ. परमेश्वर गोयल व्यंग्य शिखर सम्मान, साहित्यिक सांस्कृतिक कला संगम अकादमी परियावा, प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) द्वारा विवेकानंद सम्मान, मध्य प्रदेश लघुकथाकार परिषद द्वारा व्यंग्यकार रासबिहारी पांडे स्मृति सम्मान अलंकरण, मध्य प्रदेश नवलेखन संघ भोपाल द्वारा साहित्य मनीषी सम्मान, अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच पटना द्वारा डॉ. परमेश्वर गोयल लघुकथा शिखर सम्मान, सृजन सम्मान संस्था रायपुर द्वारा “लघुकथा गौरव सम्मान, अखिल भारतीय अंबिका प्रसाद दिव्य स्मृति रजत अलंकरणा इनके अतिरिक्त देश के विभिन्न नगरों में आयोजित कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ कई गोष्टियों व समारोहों में व्याख्यान एवं अनेक संस्थाओं द्वारा स्वागत एवं सम्मान।

डॉ. श्री राम ठाकुर दादा का नाम किसी परिचय का मुखापेक्षी नहीं है। विगत 40 वर्षों से अधिक वर्षों से भी अपनी व्यंग्य रचनाओं से जनमानस को गुदगुदाते रहे हैं और एक वैचारिक आंदोलन को बड़ी सहजता से चला रहे हैं। उनकी लघुकथाएं चेतना के विभिन्न स्तरों पर पाठकों को झकझोरती रही हैं और अपनी तरह के अनूठे मौलिक शिल्प वाला उपन्यास लिखकर वे चर्चाओं के केंद्र में रहे हैं। मध्य प्रदेश साहित्य परिषद में “पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार तथा मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के वागीश्वरी पुरस्कार की चर्चा जब भी होती है तो जबलपुर के संदर्भ में दादा का उल्लेख अनिवार्य होता है। आकाशवाणी और दूरदर्शन के अतिरिक्त विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में दादा की उपस्थिति सहज रूप से दिखलाई देती है।

हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रविंद्र नाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल और उनके समकालीन साहित्यकारों ने साहित्य में व्यंग्य को विशिष्ट स्थान दिलाने में सफलता प्राप्ति की। वहीं उनके बाद की पीढ़ी के साहित्यकारों ने इसे समृद्ध किया और निखारा भी। इन रचनाकारों में डॉ. श्री राम ठाकुर “दादा? का महत्वपूर्ण स्थान है।

समाज में फैली विद्वरूपताओं, भ्रष्टाचार, असमानताओं, कुरीतियों, भाई- भतीजावाद, लोगों के बदले नैतिक मूल्य आदि पर जितनी तीखी चोट व्यंग्य कर सकता है उतनी अन्यथा कोई विधा नहीं। व्यंग्य  वर्तमान व्यवस्था पर लिखा जाता है उसका प्रभाव भी तात्कालिक होता है किंतु पाठक वर्ग में यह सदैव अभिरुचि का साहित्य रहा है इसी का प्रतिफल है कि आज साहित्य में व्यंग्य की अलग पहचान है।

स्वतंत्र उत्तर संस्कृत काव्य में हास्य व्यंग – *दादाः अत्यंत पढ़ाकू और परिश्रमी व्यक्ति थे। वे किसी कार्य को करने की ठान लेते तो अपने श्रम और निष्ठा के बल पर पूरी करके ही दम लेते थे।

इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है पी .एच . डी. करना। “दादा? ने अपनी संपूर्ण शिक्षा दूरसंचार विभाग में नौकरी करते हुए प्राप्त की है। एक तरफ पढ़ाई, दूसरी तरफ गृहस्थी और तीसरी तरफ साहित्य सृजन और चौथी तरफ साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन में भागीदारी करना। इन सब क्षेत्रों में मेहनत और लगन से वे हमेशा अग्रणी रहे और उन्होने पी .एच .डी. भी ऐसे मौलिक एवं श्रमसाध्य विषय पर की जिसके प्रकाशित होने के लिए ख्याति लब्ध संस्कृत विद्वान डॉ. कमलेश दत्त त्रिपाठी ने अपनी अनुशंसा में लिखा है -‘प्रस्तुत ग्रंथ एक ओर सामान्य रूप से आधुनिक युग के प्रमुख संस्कृत महाकाव्यों, खंड काब्यों, मुक्तकों, काव्य संग्रहों, गीति काव्य, नाटकों, रुपको तथा स्फुट रचनाओं का सर्वेक्षण करता है और दूसरी ओर उन्हें दृश्यमान हास्य और व्यंग्य की प्रवृत्तियों को रेखांकित करता है।

हम जानते हैं कि लेखन की सबसे बड़ी और उच्चतम प्रयोजनीयता, विकृतियों से दूर मनीष को सच्चा इंसान बनाना और हमेशा बेहतरी की ओर ले जाने से जुड़ी रहती है। इस तरह वह समाज के लिए बेहतरी की लड़ाई का अगवा होता है जिसमें उसे जुगाड़ -तुगाड़ के समझौतों से परे, लगातार अपने रास्ते पर खुद की प्रतिभा और परिश्रम से अपने को विकसित करते हुए, लेखन के भीतरी और बाहरी संघर्ष से सीधे जुड़ कर आगे बढ़ना जरूरी हो जाता है। वाहवाही लूटने का अंदाज ज्यादा कारगर नहीं होता, अपितु निरंतर अपने काम में लगे रहने और अपनी आंतरिक और बाहरी पड़ताल को खुला रख पाने से ही लेखन संभव हो पाता है। ‘ दादा ने इन कसौटियों पर अपने को रखा और सतत लेखक बने रहे। लेखक और एक अच्छा इंसान, क्योंकि इंसानियत के रास्ते को आगे और सजग और व्यापक बनाना बल्कि संभव करना ही लेखक का पहला काम है। वे सहज स्वभाव के लेखक थे, कोई बनावटी लहजा नहीं या किसी तरह के आडंबर या अहम के शिकार व्यक्ति की तरह, एकदम नहीं। उनकी आत्मीयता, प्रेम, स्वभाविक विनम्रता, सक्रियता और अपनी बोली- वाणी में उनके एक खास तरह के मीठेपन से सभी परिचित हैं। यही वजह है कि उनके नगर के साहित्यिक साथियों से अच्छे संबंध थे और वे उनसे यथोचित आदर व स्नेह भी पाते थे।

साहित्यिक चेतना के विस्तार में, लोगों में रुचि और लगाव पैदा करने के मामले में, नगर में, उन्होंने जो कार्य किया, उससे सभी परिचित हैं। इस मंच के माध्यम से नई पीढ़ी के युवक और पाठक संपर्क में आए और इस वर्ग का अपेक्षित परिष्कार भी संभव हो सका। इसलिए यह कहना ठीक लगता है कि साहित्यिक आयोजनों के सिलसिले में “दादा’ का नाम एक सक्रिय व्यक्ति के रूप में था।

“दादा? जीवन भर एक साधारण, सरल व्यक्ति रहे अभिजात्य उनके जीवन से दूर ही रहा। इसलिए उनकी रचनाओं में साधारण व्यक्ति की रोजमर्रा की समस्याएं ही अधिक महत्व पाती हैं। वे अपने आसपास होते अन्याय और भ्रष्टाचार से अधिक व्यथित रहते थे।

“दादा? के लेखन की शुरुआत हास्य व्यंग की कविताओं से हुई और नए सोपान गढ़ती गई उनकी यह लेखनी। बीच-बीच में स्पुट रूप से उन्होंने कहानियां और रिपोर्ताज शैली का भी उपयोग करते हुए लेखन

किया ।बाद में वे चंपू काव्य, लघुकथा के क्षेत्र में भी आए। उनकी अनेक विधाओं पर निरंतर चलती लेखनी रुकी नहीं अंतिम दिनों में भी सक्रिय बनी रही।

लेखन में दादा ने सामाजिक, राजनैतिक एवं लौकिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर जहां भी दृष्टि डाली, वहां से व्यंग के पक्षको उजागर किया और समाज के सामने रखा तथा लोगों को उस ओर भी सोचने समझने के लिए बाध्य किया, झकझोरा । उनके व्यंग में तीखापन तो है ही , मीठी चुटकी भी असरदार है। मारक क्षमता के साथ चुटीला पन खासतौर पर सहजता लिए दिखता है। जिसे परसाई जी सटायर की संज्ञा देते थे । वे तमाम पक्ष दादा की रचनाओं में यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं।

“दादा? ने अपने समय में जब लघुकथा एक फिलर के रूप में अखबारों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थी, तब से लघुकथा का लेखन कार्य किया और उसे एक स्वतंत्र मंच देने की महती भूमिका अदा की ।

लघुकथा पर दादा? ने अनेक लेख लिखे तथा उसकी महत्ता पर बल दिया। जबलपुर में लघु कथा को एक मंच प्रदान करते हुए दादा के सहयोग से मोइनुद्दीन अतहर द्वारा युवा रचनाकार समिति का गठन हुआ जिसमें प्रमुख रुप से प्रदीप शशांक अभय बोर्ड निर्मोही, गुरु नाम सिंह रीहल, कुंवर प्रेमिल, रमेश सैनी, धीरेंद्र बाबू खरे तथा रविंद्र अकेला जैसे रचनाकारों को एक मंच दिया । जिसे अब मध्यप्रदेश लघुकथाकार परिषद के नाम से जाना जाता है। इस मंच के माध्यम से लघुकथा पढ़ी गई। लघु कथा के वर्तमान स्वरूप पर आलेख पढ़े गए तथा उस पर केंद्रित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं की चर्चा भी की गई और सभी प्रकार के कार्यक्रमों में दादा” की अपनी भूमिका रहा करती थी जिसका जबलपुर क्षेत्र की साहित्य विधा में एक अलग महत्व है।

जाने-अनजाने ऐसे और भी रचनाधर्मी होंगे जिनको दादा का यथा समय योगदान मिलता रहा है चाहे वह परोक्ष रूप में अथवा अपरोक्ष रूप में | श्री राम ठाकुर दादा ने सभी को हर संभव सहायता प्रदान की है चाहे वह किसी भी रूप में हो | अतः दादा की छवि उन सभी के दिलों में आज भी स्थान बनाए हुए हैं।

याद कोई आए तो इस तरह ना आए

जिस तरह घटा कोई बिजलियां गिराती हैं

सम्मान और पुरस्कार की परंपरा में भी दादा का योगदान नगर की अनेक संस्थाओं को मिला| जिससे संस्थाएं भी गौरवान्वित हुई और जबलपुर का मान भी बढ़ा।

दादा के द्वारा पाठक मंच की अनेक गोष्ठी आयोजित की गई और जबलपुर के साहित्य जगत को बांध के रखा अनेक समीक्षा गोष्टियों में उन्होंने नए पुराने साहित्यकारों को शामिल किया। समीक्षाओं पर मंतव्य व्यक्त किए और उस पर बहस की परंपरा भी डाली। ऐसी समीक्षा गोष्ठियों में उभरते साहित्यकार एक नई ऊर्जा के साथ सामने आए। जिसका श्रेय ठाकुर *दादा” को ही जाता है। इस तरह ‘दादा’ ने परंपराओं को गढ़ा है। उनका सरल, सहज स्वभाव व्यक्ति को अपनी ओर खींच लेता था। चाहे वह उनका सहकर्मी हो या आम आदमी। होटल पर बैठे हुए रिक्शेवाले हो अथवा पान के टपरे पर खड़ा व्यक्ति। जुझारू, जीवट और जमीन से जुड़े रहने वाले दादा का हंसमुख स्वभाव और प्रसन्नचित्त रहने का गुण मनुष्य मात्र को जीवन जीने की प्रेरणा देता है । उनकी लेखन शैली जबलपुर साहित्य के नए शिल्पियों को सदा ही प्रेरणा प्रदान करती रहेंगी ।

उनका व्यंग्य लेखन मरते दम तक चलता रहा उनकी अंतिम 2 पुस्तकें मृत्यु के। या 2 माह पूर्व दिल्‍ली से प्रकाशित होकर आई। उन्होंने अपने लेखन में व्यंग्य को प्रमुखता दी और एक सफल व्यंग्यकार के रूप में अपने आप को प्रस्तुत किया। हरिशंकर परसाई जैसा बेबाक कथन तथा शरद जोशी जैसा तीखा तेवर वाले इस महान व्यंग्य शिल्पी ने व्यंग्य के लगभग पन्द्रह तीर चलाएं जिसने साहित्य के क्षेत्र में धूम मचाई कि चारों ओर दादा का नाम बड़े सम्मान से लिया जाने लगा। मान- सम्मान, पुरस्कार, अलंकरण से पूरे देश में सम्मानित डॉ. श्री राम ठाकुर ‘दादा’ के व्यक्तित्व में घमंड की छांव तक नहीं थी। वह बहुत सरल तथा सहज व्यक्तित्व के धनी थे। जो भी उनके संपर्क में आता उनसे प्रभावित होकर धन्य हो जाता। उनके व्यक्तित्व का खास पहलू यह है कि उन्हें सभी छोटे -बड़े “दादा” कहकर पुकारते थे।

सपनों के दर्पणों में निहारा किए तुम्हें

यादों की पालकी से उतारा किए तुम्हें

डॉक्टर श्री राम ठाकुर “दादा अपने सृजन के आरंभ काल से जीवन के संध्या काल तक संघर्षरत रहे। उनकी साहित्यिक कृतियां अमूल्य धरोहर हैं। कुल मिलाकर यदि हम “दादा? की जीवन स्थितियों का निष्पक्ष अवलोकन करें तो सहजी उनकी मूल्यवत्ता से साक्षात्कार कर सकेंगे। पाठक मंच के माध्यम से संगठनकर्ता के रूप में भी “दादा ने सराहनीय योग दिया है।

डॉ. श्री राम ठाकुर “दादा” आज हमारे बीच नहीं हैं परंतु एक साहित्यकार सुधि चिंतक, सहृदय विचार वान व्यक्तित्व के रूप में भी सदैव जीवंत रहेंगे।

डॉ. श्री राम ठाकुर दादा” ऐसे समर्थ कृतिकार हैं जो आडंबरहीन भाषा और संक्षिप्त प्रारूप में यानी लघुकथाओं में मनुष्य के बहुरंगी मन और आधुनिक जीवन को विविध भंगिमाओं में प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते हैं।

“दादा’ की जिजीविषा और जीवन के प्रति उनका राग जबरदस्त था। इसीलिए उनका अचानक चले जाना हमें स्तब्ध कर गया। लगता है ऐसे जिजीविषा- संपन्न लोगों के साथ जीवन अधिक छल करता है।

जमाना बड़े शौक से सुन रहा था,

हमीं सो गए दास्तां कहते कहते।

डॉ. श्री राम ठाकुर *दादा”के निधन पर श्रद्धांजलि

कुमार सोनी- उनका साहित्य, उनका विनोद खसतौर से रेलयात्रा का उल्लेख बरबस याद आता है। नये-पुराने को बटोरकर चलना आज के समय में दुरूह कार्य है। दादा जिसे बखूबी निभाते रहे।

रमेश सैनी –मुझे दादा के पहले उपन्यास’ पच्चीस घंटे’की घटनाओं में उनका जीवन संघर्ष, जीवन के प्रति जिजीविषा, मुस्कुरा कर जवाब देने का उनका नायाब तरीका और विद्वूपता से मुठभेड़ करता उनका भरा- पूरा चेहरा याद आ गया।

कुंवर प्रेमिल – दादा जरूर इस भौतिक संसार से रूठ गए हैं पर ऐसे विचारक, कवि, कहानीकार, व्यंग्यकार और लघु कथा कार को हम सब हमेशा हमेशा याद करते रहेंगे दादा को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है।

गुरनाम सिंह रीहल- मैं दादा से सदा से प्रभावित रहा उनके साथ मैंने जीवन के विगत 30 वर्षों के कालखंड को, अपने अमूल्यवान यादों के साथ संजोकर रखा है। वे क्षण बेशकीमती धरोहर के रूप में यूँ मेरे साथ रच बस गए हैं कि उन्हें कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।

आनंद कृष्ण- दादा के विराट व्यक्तित्व में महासागरों से प्रशांति थी पर भीतर लहरें उद्वेलित होती थीं जब कोई बात हद से बाहर गुजरती तो उनकी कलम उसे कागज पर उगल देती और उसके बाद उस विसंगति या विद्वूप से उत्पन्न उनका संभास भी शांत होता यह अमोघ मंत्र है, जो रचनाकार को संयत और संयमित रखने में मदद करता है इसका मैंने भी स्वयं व्यावहारिक रूप से अनुभव किया है।

श्रीमती नम्नता पंचभाई- डॉक्टर श्री राम ठाकुर दादा एक महान साहित्यकार थे। एकदम शांत गंभीर से दिखने वाले ‘दादा ‘अपने अंदर इतनी कला छुपाए हुए थे जिसका अंदाजा उनके द्वारा रचित साहित्य को पढ़ने के बाद से ही पता चलता है। जिस प्रकार सागर की गहराई का पता नहीं चलता उसी प्रकार दादा के अंदर कितने रत्नों का भंडार साहित्य के रूप में भरा पड़ा था वह किसी को पता नहीं। ऐसी महान हस्ती का हमारे बीच से असमय चले जाना एक बहुत बड़ी क्षति है जिसकी पूर्ति असंभव है।

प्रदीप शशांक- ‘दादा’ के सहज हंसमुख, मिलनसार स्वभाव के कारण हमें बिल्कुल भी महसूस नहीं होता था कि दादा उम्र में हमसे काफी बड़े तथा साहित्य क्षेत्र की बहुत बड़ी हस्ती हैं उनमें घमंड तो लेशमात्र भी नहीं था।

हमारी रचनाओं को पढ़कर वे मुक्त कंठ से सराहना करते थे तथा बड़े भाई के रूप में महत्वपूर्ण सुझाव देने के साथ ही विभिन्न व्यंग पत्रिकाओं के पते भी देते थे।

 

आज आज दादा हमारे बीच नहीं हैं, किंतु साहित्य जगत में उनका नाम अमर हो गया है। ईमानदार, स्वाभिमानी और सहज व्यक्तित्व के धनी ‘दादा’ की अनगिनत अंमूल्य यादें सदा हमारे साथ रहेंगी।

मलय – दादा एक पिछड़े समाज से आए और उन्होंने अपनी समझ को विकसित करते हुए प्रतिभा को प्रति फलित करते हुए लेखन को पूरी मशक्कत के रास्ते से धीरे-धीरे अर्जित किया दादा के लेखन और सक्रियता की बढ़ती पहचान के कारण ही मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद ने उन्हें जबलपुर में पाठक मंच का संयोजक बनाया इसलिए यह कहना ठीक लगता है कि साहित्यिक आयोजनों के सिलसिले में ‘दादा’ का नाम एक सक्रिय व्यक्ति के रूप में था और नगर की इस क्षति का तत्काल ही पूरी कर पाना संभव नहीं लगता।

कुंदन सिंह परिहार- ‘दादा’ बड़े स्वाभिमानी थे। अपने साथ होने वाले किसी भी अन्याय को वे बर्दाश्त नहीं करते थे, चाहे उन्हें कितनी भी क्षति क्‍यों न हो [साहित्य में भी उन्हें जहां पक्षपात दिखाई पड़ता था वे तत्काल उसका विरोध करते थे। ‘दादा’ के जाने से उनके मित्रों का संसार जरूर संकुचित हुआ है और इस क्षति की पूर्ति बहुत मुश्किल है क्योंकि दादा सिर्फ एक संख्या नहीं थे।

गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त- ‘दादा’ नाम जबान पर आते ही, उनकी मधुर मुस्कान के साथ उनका अक्स एक चलचित्र की भांति मेरे मस्तिष्क में उभर आता है। उनकी एक स्वाभाविक भाव मुद्रा बरबस ही अपनी ओर खींच लेती है। ‘ दादा’ की शिराओं में खून के साथ-साथ एक व्यंग की धारा भी सहज रूप में प्रवाहमान रही है [ उनका बातचीत करने का ढंग, कहने और सुनाने की कला बड़ी ही रोचक लगती थी। वे जब भी लिखते एक आम आदमी के इर्द-गिर्द घटती हर बारीक से बारीक चीज को पकड़ कर लिखते थे। यह सहजपन बड़ा ही कठिन होता है, जो ‘दादा’ में था। व्यंग के हास्य और हास्य के साथ व्यंग दादा में एक दूसरे के पूरक रहे हैं उन्हें अलग -अलग नहीं किया जा सकता, यही ‘दादा ‘की लेखन शैली की अपनी पहचान को उजागर करता है। उनकी लेखन शैली जबलपुर साहित्य के नये शिल्पियों को सदा ही प्रेरणा प्रदान करती रहेगी।

राजेंद्र दानी- दादा” की सक्रियता व्यक्ति केंद्रित कभी नहीं रही। अपने लेखन से तथा अपनी भौतिक सक्रियताओं से बार-बार यह प्रमाणित करते रहे कि वे जिन सरोकारों के लिए क्रियाशील हैं, उनसे दुखों, असमानताओं, जातिगत संकीर्ण विश्वासों, अभावों और बौद्धिक सीमाओं का अंत अवश्यंभावी है और वे अपनी समग्र द्रढ़ताओं के साथ इससे पीछे हटने वाले नहीं है। लंबी काया के इस द्रढ़ व्यक्ति ने कभी हार नहीं मानी और जीवन पर्यत अपनी समस्त ऊर्जा के साथ साहित्य सृजन के लिए समर्पित रहे।

अपने लेखन के लिए जिस माध्यम का चयन उन्होंने किया वह बेहद चुनौतीपूर्ण था और उस पर एकांगी और निषेधता के आरोप तब भी लगते थे और अब भी लगते हैं यह व्यंग था, यह परसाई की राह थी, यह शरद जोशी की राह थी और श्रीलाल शुक्ल की राह थी और श्रीलाल शुक्ल की राह अब भी है।

अफसोस यह है कि ‘दादा’ की यात्रा अभी जारी थी और उन्हें मिलो दूर जाना था वह सेवानिवृत्त हो चुके थे और अपनी राह को निरंतर चौड़ा होते देखना चाहते थे। ऐसे में उनका जाना बहुत बड़ी सामाजिक और व्यक्तिगत क्षति है। यह तथ्य कल्पनातीत है श्री राम ठाकुर ‘दादा’ का निधन एक ऐसी ही बड़ी दुर्घटना है।

मोहम्मद मुइनुद्दीन अतहर‘- सादा जीवन उच्च विचार के धनी मौन तपस्वी ज्योतिष श्री राम ठाकुर दादा ने अपने 63 वर्ष की अल्पायु में अपने सामाजिक और पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए साहित्य के क्षेत्र में जो योगदान दिया है जो भुलाया नहीं जा सकता। अपने कार्य के प्रति जिस लगन, निष्ठा / वैर्य तथा ईमानदारी से कार्य करते हुए मैंने दादा को देखा किसी अन्य को नहीं। “दादा? के इस उद्बार को मैंने अपने गले का हार बना लिया और एक लक्ष्य बनाकर उनके साथ हो लिया।

* दादा? के सत्संग से मुझे उनसे यह प्रेरणा मिली सत्सहित्य का पठन, चिंतन, मनन ही हमारे जीवन को संवार सकता है। साहित्य के पौधे को चिंतन से जितना सींचोगे उतना ही वह परवान चढ़ेगा। साहित्य हमारे विवेक को जागृत करता है और मुख्य बात यह है कि यह समाज सुधारक की भूमिका अदा करता है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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