सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भुलक्कड़ बाबू)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 15 – संस्मरण # 9 – भुलक्कड़ बाबू ?

कुछ लोग अत्यंत साधारण होते हैं और साधारण जीवन जीते हैं फिर भी वह अपनी कुछ अमिट छाप छोड़ जाते हैं। ऐसे ही एक अत्यंत साधारण व्यक्तित्व के साधारण एवं सरल स्वभाव के व्यक्ति थे बैनर्जी बाबू।

बनर्जी बाबू का पूरा नाम था आशुतोष बैनर्जी। हम लोग उन्हें बैनर्जी दा कहकर पुकारते थे। उनकी पत्नी शीला बनर्जी और मैं एक ही संस्था में कार्यरत थे। हम दोनों में वैसे तो कोई समानता ना थी और ना ही विषय हमारे एक जैसे थे लेकिन हम उम्र होने के कारण हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी। शीला विज्ञान विषय पढ़ाती थी और मैं हिंदी।

शीला कोलकाता की निवासी थी। यद्यपि हिंदी भाषा के साथ दूर तक उसका कोई संबंध नहीं था पर मेरी कहानियाँ वह बड़े चाव से पढ़ती थी। वह अंग्रेज़ी कहानियाँ पढ़ने में रुचि रखती थी फिर चाहे वह बच्चों वाली पुस्तक एनिड ब्लायटन ही क्यों न हो। अगाथाक्रिस्टी की कहानियाँ और शिडनी शेल्डन उसे प्रिय थे। अपने बच्चों के साथ हैरी पॉटर की सारी कहानियाँ भी वह पढ़ चुकी थीं। वह इन सभी लेखकों की कहानियाँ रात भर में पढ़ने का प्रयास करती थी। दूसरे दिन एक साथ जब हम विद्यालय की बस में बैठकर यात्रा करते तब उन कहानियों की मूल कथा वह मुझे सुनाती। कभी-कभी इन कहानियों से हटकर उसके पति बनर्जी साहब के कुछ रोचक किस्से भी सुनाया करती थी।

बनर्जी दा को न जाने हमेशा किस बात की हड़बड़ी मची रहती थी। जब भी वह मिलते कहीं जल्दी में जाते हुए सारस की – सी डगें भरते हुए या तीव्रता से अपनी पुरानी वेस्पा पर सवार दिखते थे। चलो चलो जल्दी करो उनका तकिया कलाम ही था। हर बात के लिए वे इस वाक्य का उपयोग अवश्य करते थे। हर बात में हड़बड़ी, हर बात में जल्दबाज़ी और अन्यमसस्क रहना ही उनकी खासियत थी। इसीलिए शीला के पास अक्सर हमें सुनाने के लिए बैनर्जी दा के रोज़ाना नए किस्से भी हुआ करते थे।

दस वर्ष शीला के साथ काम करते हुए तथा एक साथ काफी वक्त साथ बिताने के कारण दोनों परिवार में एक पारिवारिक संबंध – सा ही जुड़ गया था। कई किस्सों के हम गवाह भी रहे और खूब लुत्फ़ भी उठाए। पर उनके हजारों किस्सों में से कुछ चिर स्मरणीय और हास्यास्पद तथा रोचक किस्सों का मैं यहाँ जिक्र करूँगी।

शीला की दो बेटियाँ थीं। काजोल और करुणा। काजोल बड़ी थी और अभी हमारे ही स्कूल में दसवीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षा देकर छुट्टियों के दौरान बास्केटबॉल की ट्रेनिंग ले रही थी। वह शीला के साथ ही आना-जाना करती थी। अप्रैल का महीना था नया सेशन शुरू हुआ था पर 10वीं की बोर्ड परीक्षा समाप्त होने के बाद भी छात्रों को स्कूल में आकर खेलने की इजाज़त थी। करुणा दूसरे विद्यालय में पढ़ती थी।

खेलते – खेलते एक दिन काजोल छलाँग मारती हुई बास्केट में बॉल डालने का प्रयास कर रही थी कि वह गिर पड़ी और उसका दाहिना पैर टखने के पास से टूट गया। शीला ने बनर्जी दा को फोन पर इस बात की जानकारी दी। काजोल का पैर टूट जाने की खबर सुनाकर उसने उन्हें यह भी बताया कि वह पास के अस्पताल में पहुँचे। शीला ने अस्पताल का नाम भी बताया।

हम पहले ही बता चुके हैं कि बनर्जी दा हमेशा ही अन्यमनस्क रहते थे। न जाने हड़बड़ी में उन्होंने क्या सुना वे जल्दबाजी में अस्पताल तो पहुँचे पर वहाँ पूछताछ की खिड़की पर वे करुणा बनर्जी के बारे में ही पूछते रहे। जब उन्हें पता चला कि उस नाम का कोई पेशेंट वहाँ नहीं है तो वह उस इलाके के हर अस्पताल में चक्कर काटते रहे। पर काजोल नाम उनके ध्यान में आया ही नहीं।

उधर शीला घायल बेटी को लेकर एक्सरे रूम में बैठी रही। जब दो-तीन घंटे तक बनर्जी दा का कुछ पता ना चला तो उसने फिर घर पर फोन किया तो किसी ने फोन नहीं उठाया। उन दिनों मोबाइल का कोई प्रचलन हमारे देश में नहीं था। केवल लैंडलाइन की सुविधा ही उपलब्ध थी। शीला समझ गई कि उसके पति निश्चित ही हमेशा की तरह हड़बड़ी में कहीं और पहुँच गए होंगे। उस दिन शीला को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। घर जाने पर जब असलियत का पता चला तो शीला बनर्जी दा पर बस बरस ही पड़ी।

एक बार शीला बहुत बीमार पड़ी। शाम के समय स्कूल छूटने के बाद कुछ सहकर्मी महिलाएँ विद्यालय की बस पकड़ कर शीला से मिलने उसके घर पहुँची।

घंटी बजी। शीला को तेज बुखार था वह बिस्तर से उठ न सकी। बनर्जी दा अभी-अभी शीला के लिए दवाइयाँ लेकर घर लौटे थे। वे बाहर पहने गए कपड़े बदल रहे थे। घंटी बजते ही वे जल्दबाज़ी में कपड़े पहने और दरवाज़ा खोलकर सबका स्वागत किया। महिलाओं को शीला के कमरे में ले गए।

उन्हें देखते ही साथ सभी महिलाएँ अपनी आवाज़ दबाए हँसने लगीं। बनर्जी दा उन्हें शीला के पास बेडरूम में बिठाकर सब के लिए उत्साहपूर्वक चाय बनाने चले गए। फिर ट्रे में चार प्याली चाय लेकर वे आए। महिलाएँ

तब भी हँसती हुई नज़र आईं। शीला को हमेशा ही अपने पति की अन्यमनस्कता और हड़बड़ी की आदत की चिंता रहती थी। उसने जब बनर्जी दा की ओर देखा तो पता चला कि अपने पजामे की जगह पर उन्होंने अलगनी से शीला का पेटीकोट उठाकर पहन लिया था और शर्ट के नीचे से उसका नाड़ा लटक रहा था। वह बेचारी शर्म के मारे गड़ी जा रही थी। तीन-चार दिनों के बाद जब वह स्कूल आई तो किसी से वह आँख न मिला पाई।

चूँकि शीला भी नौकरीपेशा थी इसलिए बनर्जी दा घर से टिफन लेकर दफ्तर जाते थे। दोपहर की छुट्टी में वे घर नहीं जाते थे। उस दिन शाम को जब दफ्तर से छूटे तो टिफिन की अपनी थैली उठाए घर चले आए। शीला ने जब टिफन धोने के लिए थैला खोला तो उसमें से दो ईनो सॉल्ट की काँच की बोतलें निकलीं। एक में पीले रंग का तरल पदार्थ था और दूसरे में मल। जब उसने बनर्जी दा से पूछा तो वे झेंप से गए, ” बोले शायद मैं शर्मा साहब की थैली गलती से उठा लाया हूँ। शाम को दफ्तर छूटने से थोड़ी देर पहले ही उनका बड़ा बेटा यह थैला रख कर गया था। सुना है उनके छोटे बेटे को जॉन्डिस हुआ है।

शीला को समझने में देरी न लगी कि अपनी थैली टिफन बॉक्स समेत पति महोदय वहीं दफ्तर में छोड़ आए थे और शर्मा जी के बेटे के स्टूल टेस्ट के लिए दी जाने वाली बोतलों वाली थैली उठा लाए थे। दूसरे दिन दफ्तर में बनर्जीदा की खूब खिंचाई हुई और टिफन बॉक्स ना रहने के कारण बाहर जाकर भोजन खाना पड़ा।

एक बार बनर्जी दा और शीला स्कूटर पर बैठ कर किसी मित्र के घर के लिए निकले थे। उस मित्र के घर जाने से पहले एक रेलवे लाइन पड़ती थी। उस वक्त जब वे वहाँ पहुँचे तो रेलवे लाइन का फाटक बंद हो गया था। पाँच – सात मिनट के बाद रेलगाड़ी वहाँ से गुज़रने वाली थी। भीड़ – भाड़ वाली जगह पर स्कूटर पर बैठे रहने से बेहतर शीला ने स्कूटर से उतरकर थोड़ी देर खड़ी रहना पसंद किया। उसने बनर्जी दा की कमर से अपना हाथ हटा लिया और वहाँ स्कूटर के पास खड़ी हो गई। थोड़ी देर बाद जब फाटक खुला बनर्जी दा हड़बड़ी में बिना शीला को लिए फाटक पार कर आगे निकल गए। जब तक शीला उन्हें पुकारती वह काफी दूर पहुँच चुके थे। पीछे से कुछ लोगों ने जाकर हॉर्न बजाया और बनर्जी दा को बताया कि आपकी पत्नी फाटक के उस पार छूट गई हैं। तब वे फिर फाटक के पास लौट कर आए। उस दिन शीला इतनी नाराज़ हुई कि उसने बनर्जी दा से कहा कि तुम हमारे मित्र के घर चले जाओ मैं एक रिक्शा पकड़ कर घर जा रही हूँ। उनसे कह देना मेरी तबीयत ठीक नहीं।

हमारे विद्यालय में एक बार प्रधानाचार्य ने हस्बैंड ईव कार्यक्रम का आयोजन रखा। इस कार्यक्रम का उद्देश्य था कि सभी विवाहिता शिक्षिकाओं के पतियों का आपस में मेलजोल हो। यह एक छोटा – सा कार्यक्रम था और उन दिनों के लिए यह एक नई कल्पना थी। सभी बहुत उत्साह और कुतूहल से इस ईव की प्रतीक्षा कर रहे थे। हमारे विद्यालय में शिक्षिकाओं की संख्या ही अधिक थी। संस्था की खासियत भी यही थी कि विद्यालय को विशिष्ट ढंग से हर कार्यक्रम के लिए सजाया जाता था। उस दिन भी उस हस्बैंड ईव के लिए विद्यालय के प्रांगण को पार्टी लुक दिया गया और इसके लिए शिक्षिकाओं को जल्दी बुलाया गया।

शीला बनर्जी दा की कमीज़ मैचिंग टाई, सूट व पतलून बिस्तर पर रख आई थी। साथ में दो जोड़े जूते भी बिस्तर के पास फर्श पर रखकर आई थी। साफ हिदायतें भी दी थी कि वे जो उचित लगे वह जोड़े पहन लें।

सभी हस्बैंड खास तैयार होकर आए। महफिल जमी, कई पार्टी गेम्स का आयोजन किया गया था। टग ऑफ वॉर, म्यूजिकल चेयर, हाउज़ी, आदि खेलों द्वारा सबका मनोरंजन भी किया गया। विभिन्न खेलों में जीते गए लोगों को पुरस्कृत भी किया गया। एक खास पुरस्कार ऐसे व्यक्ति के लिए था जो पार्टी में सबसे अलग हो और उठकर दिखे। और यह पुरस्कार बनर्जी दा को ही मिला कारण था वे दो अलग रंग व डिजाइन के शूज़ पहनकर विद्यालय आए थे। शीला ने जब उन्हें गेट से भीतर आते देखा तो उसे खुशी हुई कि उसके पति महोदय ठीक-ठाक तैयार होकर ही आए थे पर जब पुरस्कार की घोषणा हुई वह बेचारी मारे शर्म के पानी – पानी हो गई।

हमारे विद्यालय की प्रधानाचार्य बहुत बुद्धि मती तथा व्यवहारकुशल थीं। उन्होंने बड़े करीने से परिस्थिति को संभाल लिया और माइक पर बैनर्जी दा का नाम घोषित करती हुई बोली, “दूसरों पर हँसना बड़ा आसान होता है पर जो व्यक्ति अपने आप पर दूसरों को हँसने का मौका देता है वह इस संसार का सबसे बड़ा विनोदी व्यक्ति होता है और आज इस पुरस्कार के हकदार श्रीमान बनर्जी हैं। “

बनर्जी दा के सिर में बहुत कम बाल थे। यह कहना अतिशयोक्ति ना होगी कि वे गंजे ही थे। लेकिन घंटों आईने के सामने खड़े होकर बड़े करीने से अपने सात आठ बाल जो अब भी सिर पर बचे हुए थे उन्हें बाईं तरफ से दाईं तरफ कंघी फेरकर सेट किया करते थे।

जाड़े के दिन थे। नारियल का तेल जम गया था। रविवार का दिन था तो कोई जल्दी भी नहीं थी। शीला बाज़ार गई थी। बनर्जी दा ने नारियल तेल की बोतल धूप में रखी ताकि तेल गल जाए। उसी बोतल के साथ उनकी बड़ी बेटी काजोल ने अपने एन.सी.सी के जूते चमकाने के लिए काली पॉलिश भी धूप में रख छोड़ी थी। बनर्जी दा नहा- धोकर आए और अन्यमनस्कता से हड़बड़ी में बिना आईने में देखे सिर पर तेल लगाने के बजाय जूते की पॉलिश लगा ली। उस पॉलिश में किसी प्रकार की कोई गंध न थी जिस कारण उन्हें तेल और पॉलिश के बीच का अंतर समझ में नहीं आया। वैसे भी वह अन्यमनस्क प्राणी थे।

शीला के साथ उस दिन मैं भी बाजार गई थी। सामान लेकर कॉफी पीने के लिए हम उसके घर पहुँचे तो बनर्जी दा ने ही दरवाजा खोला। उनका गंजा सिर जूते के काले पॉलिश से तर हो रहा था और वे वीभत्स- से दिख रहे थे। मेरी तो ऐसी हँसी छूटी कि मैं खुद को रोक न सकी पर शीला उनके इस अन्यमनस्कता से बहुत परेशान थी। पर चूँकि मैं ही उसके साथ थी तो गुस्सा थूककर वह भी ज़ोर – ज़ोर से हँस पड़ी। बनर्जी दा फिर से नहाने चले गए।

काजोल उन दिनों चंडीगढ़ में पी.जी.आई में मेडिकल की पढ़ाई कर रही थी। शीला और बनर्जी दा उससे मिलने जा रहे थे। वे दोनों दिल्ली स्टेशन पहुँचे। दिल्ली से शताब्दी नामक रेलगाड़ी चलती थी। सुबह शताब्दी नाम से कई ट्रेनें चलती थीं। पाँच -दस मिनट के अंतर में शताब्दी नामक ट्रेन अलग-अलग प्लेटफार्म से भी छूटती थीं। प्रातः 6:30 बनर्जी दा और शीला चंडीगढ़ जाने के लिए रवाना हुए। स्टेशन पर पहुँचे हड़बड़ी में वे दोनों एक शताब्दी नामक ट्रेन में बैठ गए। सीट नंबर देखा तो वे भी खाली ही मिले। लंबी यात्रा के कारण दोनों थके हुए थे। उस दिन शीला ने भी ज्यादा ध्यान ना दिया। गाड़ी चल पड़ी। घंटे भर बाद जब टीसी आया तो पता चला कि वे अमृतसर जाने वाली गाड़ी में सवार थे। अब क्या था शताब्दी जहाँ अगले स्टेशन पर रुकने वाली थी उस स्टेशन तक का किराया तो उनको देना ही पड़ा साथ ही निर्धारित दिन और समय पर वे दोनों चंडीगढ़ न पहुँच सके।

एक और मजेदार किस्सा पाठकों के साथ साझा करती हूँ। दफ्तर के किसी कॉन्फ्रेंस के लिए बनर्जी दा को कोलकाता जाना था। फ्लाइट का टिकट था दफ्तर के कुछ और भी दूसरे लोग साथ जाने वाले थे। तीन दिन का काम था। उनके दोस्त ने टिकट अपने पास ही रखा क्योंकि बनर्जी दा भुलक्कड़ स्वभाव के आदमी थे। शीला ने पति महोदय को दफ्तर के लोगों के साथ बातचीत करते हुए सुना था वह निश्चिंत थी कि वे समय पर एयरपोर्ट पहुँच जाएँगे। शाम को 6:00 बजे की फ्लाइट थी बनर्जी दा 3:30 बजे घर से निकले 5:30 बजे वे घर भी लौट आए। बाद में पता चला कि उनकी फ्लाइट सुबह 6:00 बजे की थी ना कि शाम के 6:00 बजे की।

पतिदेव से विस्तार मालूम होने पर शीला ने तो अपना सिर ही पीट लिया।

बैनर्जी दा को गुज़रे आज कई वर्ष बीत चुके। शीला ने भी संस्था छोड़ दी और वह कोलकाता लौट गई पर मेरे पास बैनर्जी दा की हड़बड़ी और अन्यमनस्कता के इतने किस्से हैं कि मैं जब याद करती हूँ तो मुझे ऐसा लगता है कि कल की बातें हैं। हँसी के वे पल थे तो बड़े ही सुखद ! बनर्जी दा तो आज हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी याद आज भी ताजा है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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