श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक एकांकी – “छत्रपति शिवाजी की सूझबूझ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 175 ☆

☆ एकांकी–छत्रपति शिवाजी की सूझबूझ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

स्थान- घर का एक बरामदा की धूप का परिदृश्य

पात्र-

पिता– छत्रपति शिवाजी की सेना का एक वीर सैनिक

मां- इस वीर सैनिक की पत्नी

पुत्र- वीर सैनिक का पुत्र

पुत्री- वीर सैनिक की पुत्री

(दृश्य – घर के बरामदे में धूप में बैठी सैनिक की पत्नी उसकी पुत्री की चोटी गूंथ रही है।)

पुत्री- मां धीरे करो। दर्द होता है। (बालिका मुंह बनाते हुए)

मां- मैं तो धीरे ही चोटी गूंथ रही हूं। थोड़ा तो दर्द होगा ही। (माता उसके माथे पर एक हाथ से झटका देते हुए) थोड़ी देर तो चुप रहा कर।

पुत्री-वही तो कर रही हूं।

(मां चुपचाप चोटी गूंथने लगती है।)

(अचानक बालिका कुछ सुनते हुए अपनी गर्दन हिलाती है।)

पुत्री- मां! देखो तो।

मां- क्या देखूं? (मां इधर-उधर देखते हुए)

पुत्री- नहीं मां। देखो नहीं। ध्यान से सुनो।

मां- बेटी, घोड़े की टॉप की आवाज आ रही है।

(पास से घोड़े की टापों की आवाज पहले धीरे-धीरे आती है। और तेजी से बढ़ने लगती है। जैसे घोड़े धीरे-धीरे पास आ रहे हो।)

पुत्री- मां, लगता है बप्पा आ गए हैं।

मां- घोड़े की टॉप से तो ऐसा ही लगता है।

पुत्री- मां। क्या भैया की मांग पूरी हुई होगी?

मां- पता नहीं बेटी। (मां ने कहा और ध्यान से टापों की आवाज सुनाने लगी।)

पुत्री- हां मां, ध्यान से सुनो।

मां- तू सही कहती है पुत्री। यह एक नहीं दो घोड़े की टॉपों की आवाज आ रही है। (कहते हुए मां पुत्री को हाथों से धक्का देकर उठाते हुए कहती है) अंदर जा। स्वागत की थाली लेकर आ जा।

(पुत्री कमरे के अंदर जाकर स्वागत का थाल ले आती है। मां सिर पर अपना पल्लू सजाते हुए खड़ी हो जाती है।)

मां- लो। वे आ गए। (मां पुत्री के हाथ से स्वागत का थाल ले लेती है।)

पुत्री– हां मां। दोनों के चेहरे खिले हुए हैं।

मां– लगता है काम बन गया हैं। (कह कर मां दो कदम आगे बढ़ती है।) आपका हार्दिक स्वागत है!

पुत्र- हां मां! आपका आशीर्वाद फलीभूत हो गया है। (पुत्र मां के चरण स्पर्श करता हैं। तभी मां के हाथ आशीर्वाद के लिए ऊपर उठ जाते हैं।) तुम अपने पिता की तरह ही इस माटी का नाम रोशन करो।

पिता- आखिर बेटा किसका है? (तभी साथ आया हुआ आंगुतक पिता अपनी मूंछो पर ताव देते हुए कहता है।)

मां- बहादुर शेर पिता की तरह बहादुर शेर संतान है।

(मां आंगुतक पिता के तिलक लगा देती है। दोनों चारपाई पर बैठ जाते हैं। मगर पुत्र इधर-उधर घूमता रहता है। वह अधीरता से कहता है।)

पुत्र- मां! जानती हो मां दरबार में क्या हुआ था?

मां- हां बेटा। बता। मगर इस चारपाई पर बैठकर।

पुत्री- हां भैया! बताओ ना। वहां क्या हुआ था?

पुत्र- जानती हो मां, जब हम दरबार में पहुंचे तब क्या हुआ?

मां- क्या हुआ मेरे शेर। बता तो।

पुत्र- महाराज छत्रपति शिवाजी महाराज ने मेरी ओर देखकर कहा- इस बालक के मुख से एक अलौकिक तेज झलक रहा है।

मां- अच्छा बेटा। हमारे प्रिय महाराज ने ऐसा कहा था।

पुत्र- हां मां। मुझे कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। महाराज शिवाजी ने कहा- बोलो वीर पुत्र! क्या चाहिए?

मां– अच्छा। उन्हें स्वयं ही पता चल गया कि तुम कुछ मांगने आए हो?

पुत्र- हां मां। महाराज छत्रपति शिवाजी जितने बहादुर, वीर और कुशल शासक हैं उतने ही दूसरे की मंशा पकड़ने में माहिर है। (कहते हुए पुत्र ने अपनी बहन की ओर देखा। वह वह अपलक अपने भाई को निहारे जा रही थी।)

मां– फिर?

पुत्र- मैंने कहा- महाराज छत्रपति शिवाजी की जय हो! वे सदा विजयी रहे! जिसे सुनकर महाराज छत्रपति शिवाजी मुस्कुरा दिए।

मां-अच्छा!

कब से चुपचाप बैठे हुए पिता ने कहा- सत्य कहता है हमारा पुत्र।

मां- फिर क्या हुआ?

पुत्र- मैंने कहा- महाराज आपका हौसला बुलंद हो। मुझे नाचीज को एक उम्दा किस्म का घोड़ा चाहिए।

मां- फिर?

पुत्र- फिर क्या मां। दरबार में सन्नाटा छा गया। इस वक्त एक मंत्री ने खड़े होकर कहा- महाराज गुस्ताखी माफ हो हुजूर!

मां- फिर?

पुत्र- तभी छत्रपति शिवाजी महाराज ने कहा- बोलिए मंत्री जी। क्या कहना चाहते हो? तब मंत्री जी ने कहा- महाराज! एक बालक को घोड़े देने में घोड़े की क्या उपयोगिता रहेगी?

मां-फिर क्या हुआ बेटा?

पुत्र- तब कुछ देर दरबार में सन्नाटा छाया रहा। तब छत्रपति शिवाजी महाराज ने मेरी और देखा- वीर बालक! इस बारे में तुम्हारी राय क्या है?

(कहते हुए बालक पिताजी के पास खड़ा हो गया) -पिता श्री! यही हुआ था ना?

पिता- हां पुत्र। कहते रहो। बहुत ठीक कह रहे हो।

पुत्र-तब मां मैंने कहा- महाराज की जय हो! यदि मंत्रीवार घोड़े की उपयोगिता जानना चाहते हो तो मुझे तलवार के दो-दो हाथ कर लें। तब उन्हें पता चल जाएगा कि मेरे लिए इस घोड़े की क्या उपयोगिता है?

मां- अच्छा! फिर?

पुत्र- फिर क्या मां, वह मंत्री यही चाहता था। वह तलवार लेकर मेरे पास आ गया- चलो बालक! तुम्हारी इस तमन्ना को पूरी कर देता हूं। कह कर वह इस तरह खड़ा हो गया जैसे किसी नादान बालक के सामने खड़ा हो।

मां- फिर क्या हुआ पुत्र?

पुत्र- होना क्या था मां, मैंने इस तरह तलवार चलाई कि वह चकित रह गया। तब वह सावधान होकर तलवार चलाने लगा। उसने कई दांवपेच चले। ताकि मुझे धूल चटा सके।

मां- फिर?

पुत्र- फिर क्या था मां। दरबार व महाराज छत्रपति शिवाजी भी मेरे तलवार कौशल को देखते रह गए। मंत्रीवर ने हारता देखकर अपना पैंतरा दिखाने की कोशिश की। मगर उनके सब पैंतरे फेल हो रहे थे।

पुत्री- फिर क्या हुआ भैया?

पुत्र-होना क्या था बहन। मैंने उसकी नजर बचाकर तलवार का एक पैंतरा लगाया। तलवार सीधे दोनों पैर के बीच से होकर कमर की ओर जाने लगी। यह देखकर उनके होश उड़ गए। तब मैंने तलवार पैर के ऊपर जोड़ के पास ले जाकर रोक दी।

(कब से चुप बैठे पिता ने कहा)

पिता- भाग्यवान! वह दृश्य देखने लायक था। दरबार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। महाराज छत्रपति शिवाजी अपने सिंहासन से उठकर नीचे आ गए।

मां- फिर?

पुत्र- उन्होंने आते ही मुझे अपने सीने से लगा लिया। शाबाश! मेरे वीर बालक! तुमने अपनी उपयोगिता सिद्ध कर दी है। हमारे मंत्रीवर को हरा दिया।

मां- अच्छा! उन्होंने ऐसा कहा!

पुत्र- हां मां। 

पुत्री-अच्छा भैया!

पुत्र- हां बहन।

माँ- फिर?

पुत्र- फिर मैंने कहा- महाराज! मंत्रीवर हारे नहीं है। उन्होंने मुझे जीता दिया। तब महाराज ने चौक कर कहा- क्या मतलब है वीर बालक आपका?

मां- हूं।

पुत्र-तब मैंने कहा- महाराज! मंत्रीवर का अभ्यास छूटा हुआ है। इस कारण उन्होंने मुझे जीतने दिया। अन्यथा मैं कभी नहीं जीतता।

मां-अच्छा।

पुत्र- हां मां। तब महाराज छत्रपति शिवाजी ने कहा- बेटा! तुम बहादुर नहीं बल्कि बुद्धिमान बालक भी हो। तब सभी मंत्री जोर से बोल पड़े- वीर बालक की, जय हो!

मां- अच्छा!

पुत्र- हां मां। यह कहते हुए छत्रपति शिवाजी ने कहा- यदि धरती पर सभी लाल इसी तरह बुद्धिमान व बहादुर हो जाए तो यह देश कभी गुलाम नहीं हो सकता।

(मां यह सुनकर गर्व से खड़ी हो जाती है।)

मां-आखिर लाल किसका है?

पुत्री- मेरा भैया!

पिता- ऐसा पुत्र सबको मिले। ताकि सब माता-पिता उस पर गर्व कर सके।

(यह सुनकर सभी खिलखिला कर हंस पड़ते हैं और पर्दा गिर जाता है)

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

30-12-2024

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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