प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “अभी भी बहुत शेष है” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा # 182 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – दुख से घबरा न मन ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
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दुख से घबरा न मन, कर न गीले नयन,
दुख तो मानव के जीवन का सिंगार है ।
इससे मिलता है बल, दिखती दुनियां सकल
आगे बढ़ने का ये सबल आधार है ।।۹ ۱۱
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सुख में डूबा है जो, मन में फूला है जो,
समझो यह-राह भटका है, भूला है वो ।
दुख ही साथी है जो साथ चल राह में
रखता साथी को हरदम खबरदार है ।। २ ।।
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सुख औ’ दुख धूप-छाया हैं बरसात की
उड़ती बदली शरद-चाँदनी रात की ।
सुख की साधे ललक, दुख की पाके झलक
जो भी डरता है वो कम समझदार है ।। ३ ।।
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कर्म-निष्ठा से नित करते रहना करम भूलकर
सारे भ्रम आदमी का धरम फल तो देता है
खुद कर्म हर एक किया फल पै
कोई किसी का न अधिकार है ।। ४ ।।
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जो भी चलते हैं पथ पै समझ-बूझकर
उन्हें सुख-दुख बराबर, नहीं कोई डर ।
उनकी मंजिल उन्हें देती अपना पता
सहना है जिंदगी – ये ही संसार है ।। ५ ।।
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© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈