श्री जय प्रकाश पाण्डेय
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।
ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी”।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆
हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
स्व. हरिशंकर परसाई
☆ कहाँ गए वे लोग # २० ☆
☆ “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(अगस्त 2023 – अगस्त 2024 हिंदी के महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्मशती वर्ष है।)
देशभर के कोने कोने उनके जन्मशती वर्ष पर परसाई पर केंद्रित लगातार आयोजन हो रहे हैं। हिंदी साहित्य में हरिशंकर परसाई जैसा दूसरा व्यक्ति नहीं हुआ। परसाई के तीखे व्यंग्य बाणों ने सत्ता के अन्तर्विरोधों की पोल खोल दी और अपने युग की राजनीतिक सामाजिक विडंबनाओं को तीखे ढंग से पेश किया। हिन्दी साहित्य में परसाई ही एकमात्र ऐसे लेखक हैं जो प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक माने जाते हैं। आजादी के बाद आज तक वे व्यंग्य के सिरमौर बने हुए हैं, 1947 से 1995 के बीच परसाई जी की कलम ने घटनाओं के भीतर छिपे संबंधों को उजागर किया है, एक वैज्ञानिक की तरह उसके कार्यकारण संबंधों का विश्लेषण किया है और एक कुशल चिकित्सक की तरह उस नासूर का आपरेशन भी किया। वे साहित्यकार के सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहेे और अपनी रचनाओं से जन जन के बीच लोकशिक्षण का काम किया।परसाई जी जीवन के अंतिम समय तक पीड़ा ही झेलते रहे, यह व्यक्तिगत पीड़ा भी थी, पारिवारिक पीड़ा भी थी, समाज और राष्ट्र की पीड़ा भी थी, इसी पीड़ा ने व्यंग्यकार को जीवन दिया। उनका व्यंग्य कोई हंसने हंसाने, हंसी – ठिठोली वाला व्यंग्य नहीं, वह आम जनमानस में गहरे पैठ कर मर्मांतक चोट करता है, वह उत्पीड़ित समाज में नई चेतना का संचार करता है, उन्हें कुरीतियों, अज्ञान के खिलाफ जेहाद छेड़ने बाध्य करता है, वह सरकारी अमले को दिशानिर्देश देता प्रतीत होता है, यह साहस हर कोई नहीं जुटा सकता। समाज से, सरकार से, मान्य परंपराओं के विरोध करने में जो चुनौती का सामना करना होता है उससे सभी कतराते हैं, पर यह पीड़ा परसाई जी ने उठाई थी । व्यंग्य को लोकोपकारी स्वरूप प्रदान करने में उनके भागीरथी प्रयत्न की लम्बी गाथा है।अब उनके व्यंग्य की परिधि आम आदमी से घूमते घूमते राष्ट्रीय सीमा लांघ अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर स्थापित हो चुकी है। दिनों दिन बढ़ती उनकी लोकप्रियता, चकित करने वाली उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता, उनके चाहने वालों की बढ़ती संख्या से अहसास होता है कि कबीर इस धरती पर दूसरा जन्म लेकर हरिशंकर परसाई बनकर आए थे।
जो परसाई की “पारसाई” को जानता है, वही परसाई जी को असल में जानता है, उनके लिखे ‘गर्दिश के दिन’ पढ कर हर आंख नम हो जाती है, हर व्यक्ति के अंदर करूणा की गंगा बह जाती है। ‘गर्दिश के दिन’ पढ़कर एक युवा लेखक ने परसाई के नाम पत्र लिखा, जो उस समय गंगा पत्रिका में छपा था…..
जनाब परसाई जी,
मैं नया जवान हूं। कुछ साल पहले मैंने लिखना शुरू किया था। मेरी महत्वाकांक्षा थी कि मैं हरिशंकर परसाई बनूंगा पर आपका लिखा “गर्दिश के दिन” पढ़कर और आपके द्वारा भोगे गये घोर कष्टों का वर्णन पढ़कर मैंने यह विचार त्याग दिया है। मैं हरिशंकर परसाई अब नहीं बनूंगा। हरिशंकर परसाई बनना आपको ही मुबारक हो। मैं हमदर्दी भेजता हूं।
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परसाई दुनिया के ऐसे अकेले लेखक हैं जिनके जीते जी उनकी “रचनावली” प्रकाशित हुई थी, उनकी रचनाओं में धारदार हथियार करूणा के रस में डूबा रहता था, उनकी रचनाओं में ऐसा धारदार सच होता है, एक बार उनकी रचना पढकर कुछ लोगों ने उनको इतना पीटा और उनकी दोनों टांग तोड दी, पर वे टूटी टांग लिए जीवन भर लिखते रहे। आजादी के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लोकप्रिय लेखक श्री हरिशंकर परसाई ने अपनी रचनाओं के मार्फत सामाजिक सुधार में अपनी बड़ी भूमिका निभाई है, उनकी रचनाओं को पढ़कर भ्रष्टाचारियों ने भ्रष्टाचार छोड़ा,गिरगिट की तरह रंग बदलने वाली मनोवृत्ति वालों ने अपना स्वाभाव बदला, पुलिस वाले सुधरे, सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था और व्यवहार में कुछ हद तक सुधार हुआ और होता जा रहा है, लाखों लोग उनकी रचनाओं से प्रेरणा लेकर समाज सुधार में लगे हैं। वास्तव में ऐसे समाज सुधारक लोकप्रिय,लोक शिक्षक लेखक भारत रत्न के हकदार होते हैं। परसाई अपने आसपास बिखरे साधारण से विषय को अपनी कलम से असाधारण बना देते थे, उनकी रचनाएं पाठक को अंत तक पकड़े रहतीं हैं। हाईस्कूल के पंडित जी तो सबको मुहावरे और सुभाषित पढ़ाते हैं पर उनकी गहराई में जाकर परसाई जी हंसाते हुए आम आदमी की प्रवृत्तियों को उजागर करते हैं। ऐसी सहज सरल भाषा में जो आमतौर पर सब तरफ हर कान में सुनाई देती है। राजनीति परसाई जी को मुख्य विषय रहा है, राजनैतिक बदलाव की इतनी सारी स्थिति के बाद भी उनकी रचनाएं आज भी सबसे ताजा लगतीं हैं, उनकी घटना प्रधान रचनाएं कहीं से भी बासी नहीं लगती। वाह परसाई,गजब परसाई, हां परसाई …. तेरी गजब पारसाई।
परसाई जी की पहली रचना 1947 में ‘प्रहरी’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, और परसाई जी ने अपने सम्पादन में पहली पत्रिका वसुधा 1956 में निकाली थी। कालेज के दिनों से हम परसाई जी के सम्पर्क में रहे और उनका विराट रूप देखा, उनकी रचनाएँ पढ़ी, “गर्दिश के दिन” में भोगे घोर कष्टों का वर्णन पढ़ा, उनसे हमने लम्बा साक्षात्कार लिया जो बाद में हंस, जनसत्ता,वसुधा में प्रकाशित हुआ। नेपथ्य में चुपचाप हम थोड़ा बहुत रचनात्मक कामों में लगे रहे, पढ़ते रहे लिखते रहे, उन्हें बहुत करीब से जाना समझा।
इस लेख के साथ उसका संक्षिप्त परिचय देना आवश्यक लगता है ताकि नयी पीढ़ी परसाई जी को जान सके।
हरिशंकर परसाईं का जन्म 22 अगस्त¸ 1924 को जमानी¸ होशंगाबाद¸ मध्य प्रदेश में हुआ था। वे हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के–फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा है। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी पैदा नहीं करतीं¸ बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने–सामने खड़ा करती हैं¸ जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन–मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान–सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा–शैली में खास किस्म का अपनापा है¸ जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. किया| उन्होंने 18 वर्ष की उम्र में जंगल विभाग में नौकरी भी की। खण्डवा में 6 महीने अध्यापक रहे। दो वर्ष (1941–43) जबलपुर में स्पेस ट्रेनिंग कालिज में शिक्षण कार्य का अध्ययन किया। 1943 से वहीं माडल हाई स्कूल में अध्यापक रहे। 1952 में यह सरकारी नौकरी छोड़ी। 1953 से 1957 तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की। 1957 में नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरूआत की। जबलपुर से ‘वसुधा’ नाम की साहित्यिक मासिकी निकाली¸ नई दुनिया में ‘सुनो भइ साधो’¸ नयी कहानियों में ‘पाँचवाँ कालम’¸ और ‘उलझी–उलझी’ तथा कल्पना में ‘और अन्त में’ इत्यादि का लेखन किया। कहानियाँ¸ उपन्यास एवं निबन्ध–लेखन के बावजूद मुख्यत: हरिशंकर परसाईं व्यंग्यकार के रूप में अधिक विख्यात रहे| परसाई जी जबलपुर रायपुर से निकलने वाले अखबार देशबंधु में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। स्तम्भ का नाम था-पूछिये परसाई से। पहले हल्के इश्किया और फिल्मी सवाल पूछे जाते थे । धीरे-धीरे परसाईजी ने लोगों को गम्भीर सामाजिक-राजनैतिक प्रश्नों की ओर प्रवृत्त किया। दायरा अंतर्राष्ट्रीय हो गया। यह सहज जन शिक्षा थी। लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिये अखबार का इंतजार तक करते थे।
हरिशंकर परसाईं जी का सन 1995 में देहावसान हो गया।
कहानी–संग्रह: हँसते हैं रोते हैं¸ जैसे उनके दिन फिरे।
उपन्यास: रानी नागफनी की कहानी¸ तट की खोज, ज्वाला और जल।
संस्मरण: तिरछी रेखाएँ , के अलावा और बहुत सी संग्रह।
लेख संग्रह: तब की बात और थी¸ भूत के पाँव पीछे¸ बेइमानी की परत¸ अपनी अपनी बीमारी, प्रेमचन्द के फटे जूते, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ा, आवारा भीड़ के खतरे, ऐसा भी सोचा जाता है, वैष्णव की फिसलन¸ पगडण्डियों का जमाना¸ शिकायत मुझे भी है¸ सदाचार का ताबीज¸ विकलांग श्रद्धा का दौर¸ तुलसीदास चंदन घिसैं¸ हम एक उम्र से वाकिफ हैं।
सम्मान: ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित। अनेकों पुरस्कार/ सम्मानों से सम्मानित।
सन् 1985 में प्रकाशित परसाई रचनावली में स्वयं परसाई द्वारा लिखे गये निवेदन का एक अंश…
35 साल अपने विश्वास को मजबूती से पकड़कर, बिना समझौते के, मैंने जो सही समझा, लिखा है। जो कुछ मानव विरोधी है, उस पर निर्मम प्रहार किया है। नतीजे भोगे हैं, अभी भोग रहा हूँ, आगे भी भोगता जाउॅंगा। पर मैं लगातार उसी स्फूर्ति, शक्ति ओर विश्वास से लिखता जा रहा हूँ।
मेरा लिखा हुआ कुल इतना नहीं है, जो इस रचनावली में है। अभी बहुत कुछ शेष है जो आगे प्रकाशित होगा। फिर मैं मरा नहीं हूँ। जिन्दा हूँ और लिख रहा हूँ।
पुराने मित्रों में मैं ‘स्वामीजी’ कहलाता हूँ। परम्परा है कि संन्यासी अपना श्राद्ध स्वयं करके मरता है। तो रचनावली मेरा अपना श्राद्ध कर्म है, जो कर के दे रहा हॅू। वैसे मैं अभी जवान हूँ, मगर श्राद्ध अभी कर दे रहा हूँ।
श्री जय प्रकाश पाण्डेय
416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈