श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “रोशनी की आस…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 62 ☆ रोशनी की आस… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(पहाड़ों पर प्रकृति की विध्वंसक लीला पर एक गीत)
पास सब कुछ
पर है लगता
कुछ नहीं है पास।
*
आस्थाओं
पर है भारी
प्रकृति का यह दंड
हो गया
है आदमी का
उजागर पाखंड
*
रो रही है
धरा पावन
हँस रहा आकाश ।
*
हाहाकारों
से पटी
छाती हिमालय की
हिल गईं
सब मान्यताएँ
पूजा शिवालय की
*
डगमगा कर
रह गया है
लोगों का विश्वास ।
*
दृष्टियाँ
बस खोजती हैं
अपनेपन की धूप
बेचती है
नियति पल-पल
विवशता के रूप
*
मौन करुणा
में छुपी है
रोशनी की आस ।
***
© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈