डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘मम्माँज़ स्पेशल‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 143 ☆
☆ लघुकथा – मम्माँज़ स्पेशल ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
मम्माँ! आपने हमारे लिए सत्तू क्यों भेज दिया ?
गाँव से लाए थे, थोड़ा तेरे लिए भी भेज दिया ऋतु, अच्छा होता है, गर्मी में पेट में ठंडक देता है। क्यों, क्या हुआ ?
माँ! क्या जरूरत है गाँव से चीजें ढ़ोकर लाने की? ऑनलाईन ऑर्डर करो घर बैठे सब मिल जाता है आजकल। बिना मतलब गाँव से इतना बोझा उठाकर लाओ।
अरे, अपने गाँव की पड़ोस की काकी ने बड़े प्यार से खुद बनाकर दिया है तेरे लिए। घर के बने सत्तू की बात ही कुछ और है। ये कंपनी वाले पता नहीं क्या मिलावट करते होंगे उसमें।
सारी दुनिया ऑनलाईन शॉपिंग कर रही है। कंपनी वाले आपको ही खराब चीजें भेजेंगे? और अच्छा नहीं हुआ तो वापस कर दो, पैसे वापस आ जाते हैं।
‘अच्छा, ऐसा भी होता है क्या? हमें नहीं पता था। हमने तो अपनी माँ को ऐसे ही करते देखा था बेटा!। जब साल – दो साल में मायके जाना होता था, माँ वापसी के समय न जाने कितनी चीजें साथ में बाँध देती थी। लड्डू, मठरी, बेसन के सेव, गुड़, सत्तू और भी बहुत कुछ। आजकल तुम लोग हर चीज के लिए यही कहते रहते हो कि सब ऑनलाईन मिल जाता है, ऑर्डर कर लेते हैं। खरीद लो भाई सब ऑनलाईन, अब नहीं भेजेंगे कुछ। क्या करें माँ का दिल है ना!’ – सरोज ने झुंझलाते हुए कहा।
‘अरे! गुस्सा मत होईए, हम तो इसलिए कह रहे थे कि ट्रेन से सामान लाने में आपको परेशानी होती होगी, सामान बढ़ जाता है, सँभालना मुश्किल होता है और कोई बात नहीं है। ‘
‘हम पुरानी पीढ़ी के हैं बेटा। अब तुम लोग ऑनलाईन और गूगल युग के हो। जो चाहिए घर बैठे मँगा लो और जो कुछ पूछना हो तो गूगल गुरु हैं तुम्हारे पास, हमारे जैसों की क्या जरूरत?’ – सरोज के स्वर में थोड़ी मायूसी थी।
‘अच्छा छोड़िए यह सब, यह बताइए आपने हमें अपने हाथ के देशी घी के बेसन के लड्डू क्यों नहीं भेजे’ – ऋतु ने माँ को मनाते हुए कहा।
‘क्यों बेसन के लड्डू ऑनलाईन नहीं मिलते क्या, वह भी ऑर्डर कर लो, हम क्यों मेहनत करें’ — सरोज थोड़ी नाराजगी जताते हुए बोली।
‘हमें पता था गुस्से में आप यही बोलेंगी’ – ऋतु ने हँसते हुए कहा। ‘हमें कुछ नहीं पता माँ, आपके बनाए लड्डू खाने का बहुत मन हो रहा है। आपके हाथ के देशी घी के बेसन के लड्डू इतने स्वादिष्ट होते हैं कि नाम लेते ही मुँह में पानी आ जाता है। हॉस्टल में लड़कियों से छुपाकर रखना पड़ता था, नहीं तो एक दिन में ही सब खत्म। ‘मम्माँज़ स्पेशल लड्डू’ आपके सिवाय दुनिया में कोई भी नहीं बना सकता मम्माँ ! ’
‘अच्छा – अच्छा, अब माँ को मक्खन लगाना बंद कर, भेज दूँगी बेसन के लड्डू’ और दोनों फोन पर जोर से खिलखिलाकर हँस पड़ीं।
© डॉ. ऋचा शर्मा
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