श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक कहानी- “दौड़ता भूत”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 183 ☆
☆ कहानी- दौड़ता भूत ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
उनका गोला यहीं रखा था. कहां गया? काफी ढूंढा. इधर-उधर खुला हुआ था. उसे खींच खींचकर समेटा गया. तब पता चला कि वह ड्रम के पीछे पड़ा था.
पिंकी ने जैसे ही गोले को हाथ लगाना चाहा वह उछल पड़ी. बहुत जोर से चिल्लाई, “भूत! दौड़ता भूत.”
यह सुनते ही घर में हलचल हो गई. एक चूहा दौड़ता हुआ भागा. वह पिंकी के पैर पर चढ़ा. वह दोबारा चिल्लाई, “भूत !”
दादी पास ही खड़ी थी. उन्होंने कहा, “भूत नहीं चूहा है.”
” मगर वह देखिए. ऊन का गोला दौड़ रहा है.”
तब दादी बोली, “डरती क्यों हो? मैं पकड़ती हूं उसे, ” कहते हुए दादी लपकी.
ऊन का गोला तुरंत चल दिया. दादी झूकी थी. डर कर फिसल गई.
पिंकी ने दादी को उठाया. दादी कुछ संभली. तब तक राहुल आ गया था. वह दौड़ कर गोले के पास गया.
राहुल को पास आता देख कर गोला फिर उछला. राहुल डर गया, “लगता है गोले में मेंढक का भूत आ गया है.”
तब तक पापा अंदर आ चुके थे. उन्हों ने गोला पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया. गोला झट से पीछे खिसक गया.
“अरे यह तो खीसकता हुआ भूत है,” कहते हुए पापा ने गोला पकड़ लिया.
अब उन्होंने काले धागे को पकड़कर बाहर खींचा, “यह देखो गोले में भूत!” कहते हुए पापा ने काला धागा बाहर खींच लिया.
सभी ने देखा कि पापा के हाथ में चूहे का बच्चा उल्टा लटका हुआ था.
“ओह ! यह भूत था,” सभी चहक उठे.
© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
21-04-2021
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