श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “गति समझे नहि कोय…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 212 ☆ गति समझे नहि कोय… ☆
सदैव ऐसा होता है कि पौधे के सारे फूल तोड़कर हम उपयोग में ले लेते हैं पर उसका रक्षक काँटा अकेला रह जाता है, तब तक इंतजार करता है जब तक कली पुष्प बनकर पुष्पित और पल्लवित न होने लगे किन्तु फिर वही चक्र चलने लगता है पुष्प रूपवान बन जग की शोभा बढ़ाने हेतु डाल से अलग हो जाता है, शूल पुनः अकेला यही सोचता रह जाता है कि आखिर उसकी भूल क्या थी…।
बहुत हुआ तो खेतों की बाड़ी या राह रोकने हेतु इसका प्रयोग कर लिया जाता है किन्तु उसमें भी लोग नाक भौं सिकोड़ते हुए बचकर निकल ही जाते हैं, साथ ही अन्य लोगों को भी सचेत करते हैं अरे भई काँटे हैं इनसे दूर रहना।
कहने का अर्थ ये है कि यदि आप कोमल हृदय होंगे तो जगत को आकर्षित करेंगे, सुगन्धित होकर सबकी पीड़ा हरेंगे, जो भी संपर्क में आयेगा वो भी महकने लगेगा जबकि दूसरी ओर केवल घाव मिलेंगे। सो अपने को रूपवान के साथ – साथ मुस्काता हुआ, महकाता हुआ बनाइए।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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