श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – “अथकथा में, हे कथाकार!”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 186 ☆
☆ व्यंग्य- अथकथा में, हे कथाकार! ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
सभी जीवों में मानव जीव श्रेष्ठ है। यह उक्ति प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। वर्तमान युग ‘फेसबुक’ का है। उसी का हर जुबान पर बोलबाला है। इस कारण जिसका बोलबाला हो उसका कथाकार ही श्रेष्ठ हो सकता है। ऐसा हम सब का मानना है। यही वजह है कि ‘फेसबुक का कथाकार’ ही आज का श्रेष्ठ जीव है।
उसी की श्रेष्ठता ‘कथा’ में है। कथा वही जो छप जाए। शायद, आपने ठीक से समझा नहीं। यह ‘छपना’ पत्रपत्रिकाओं में छपना नहीं है। उसमें तो ‘मसि कागद करें,’ वाले ही छपते हैं। मगर ‘फेसबुक’ पर जो ‘छप’ जाए, वही आज का ‘हरि’ है।
‘हरि’ भी अपनी श्रेणी के हैं। इन्हें ‘फेसबुक’ के ‘फेस’ के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें पहले टाइप के जीव वे हैं जो ‘छपते’ कम है मगर उसकी चर्चा ‘फेसबुक’ पर ज्यादा करते हैं। बस, हर रोज इस रचना का ‘फेस’ ही इसी ‘बुक’ पर पेस्ट करते रहते हैं। ताकि अपनी चर्चा होती रहे।
ये ‘मसिजीवी’ इस मामले में माहिर होते हैं। हां, रोज 5 से 7 घंटे इसी पर लगे रहते हैं। ‘फेस’ को किस तरह चमकना है? उसी के लिए ‘बुक’ पर लगे रहते हैं। यही वजह है कि ये लिखने भले ही कम हो, छपते भले ही एक बार हो, इनका ‘फेस’ हमेशा चमकता रहता है।
कुछेक नामधन्य ‘हरि’ भी होते हैं। वह छपते तो हैं पर ‘फेस’ चमकना उन्हें नहीं आता है। वे ‘फेसबुक’ से दूर रहते हैं। उन्हें नहीं पता है कि इस तरह की कोई ‘बीमारी’ भी होती है।जिसमें ‘फेस’ को ‘बुक’ में चमकाया जाता है।
तीसरे ‘हरि’ निराले होते हैं। लिखते तो नहीं है पर ‘फेस’ पर ‘फेस’ लगाए रहते हैं। ये ‘काम’ की बातें ‘फेस’ पर लगाते हैं। फल स्वरूप इनका ‘फेस’ हमेशा ‘फेसबुक’ पर चमकता रहता है। इनके ‘पिछलग्गू’ इस पर संदेश पर संदेश लगाया करते हैं। इस कारण बिना ‘फेस’ के भी उनका ‘फेस’ चमकता रहता है।
चौथे तरह के ‘हरि’ अपनी छपास प्रवृत्ति से ग्रसित होते हैं। छपना तो बहुत चाहते हैं मगर छप नहीं पाते हैं। एक दिन सोचते हैं कि कविता लिखेंगे। मगर लिख नहीं पाते हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे दिन कहानी, लघुकथा से होते हुए उपन्यास लिखने पर चले जाते हैं। मगर लिखने का इनका ‘फेस’ तैयार नहीं होता है। बस इसी उधेड़बुन में ‘फेसबुक’ पर बने रहते हैं। ये ‘सर्वज्ञाता’ होने का दम भरते रहते हैं।
पांचवें क्रम के ‘हरि’ संतुलित ‘फेस’ के होते हैं छपते तो हैं। ‘फेसबुक’ पर ‘फेस’ चमका देते हैं। नहीं छपे तो वे बैठे हुए चुपचाप देखते रहते हैं। इन्हें बस उतना ही काम होता है जितनी रचना छप जाती है। उसे ‘फेसबुक’ पर ‘फेस’ किया और चुप रह गए।
छठे क्रम में वे ‘हरि’ आते हैं जिन्हें अपना गुणगान करने की कला आती है। ये अपना ‘फेस’ को चमकाने में कलाकार होते हैं। इसी जुगाड़ में दिन-रात लगे रहते हैं। अपनी रचना को ‘फेस’ पर ‘पेश’ करते रहते हैं। मगर ‘पेश’ करने का रूप व ढंग हमेशा बदलते रहते हैं। कभी रचना की भाषा का उल्लेख करेंगे, कभी उसकी आवृत्तियों का।
कहने का तात्पर्य यह है कि ‘फेसबुक’ के ये ‘मसिजीवी’ अकथा की कथा बनाने में माहिर होते हैं। इन्हें हर कथा व अकथा से ‘फेस’ निकालना आता है। यही वजह है कि यह ‘फेसबुक’ पर अपना ‘फेस’ चमकाते रहते हैं।
इसके अलावा भी और कई कथा के अकथाकार हो सकते हैं। मगर मुझ जैसे मसिजीवी को इन्हीं का ज्ञान है। इस कारण उनका उल्लेख ध्यान यहां पर कर पा रहा हूं। बस, आप भी इनमें से अपना ‘फेस’ पहचान कर अपनी ‘पहचान’ बना सकते हैं।
© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
16-07-2024
संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226
ईमेल – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈