डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – बुद्ध और केशवदास ☆
यह ‘जुबावस्था’ जो होती है, महाठगिनी होती है। भगवान बुद्ध ने इसी बात को समझ लिया था, इसलिए उन्होंने घर छोड़कर सन्यास ले लिया। लेकिन जो लोग बुद्ध की तरह कुछ सीखते नहीं, वे युवावस्था को ही पकड़ रखने की कोशिश में लगे रहते हैं। जवानी बरजोर घोड़ी की तरह उन्हें छोड़कर भागी जाती है और वे उसे पकड़ रखने के चक्कर में उसके साथ घसिटते जाते हैं। बाल सफेद हो जाते हैं, दाँत झड़ जाते हैं, खाल ढीली हो जाती है, लेकिन सींग कटाकर बछड़ों में नाम लिखाने की ललक कम नहीं होती।
कुछ लोग जवानी को सलामत रखने के लिए बाल रंग लेते हैं। कल तक मामला खिचड़ी था, आज कृष्ण-क्रांति हो गयी। लेकिन राज़ छिपता नहीं। रंगे बाल अपना राज़ खुद ही खोल देते हैं। कभी कोई खूँटी सफेद रह जाती है, कभी मेंहदी का सा लाल लाल रंग दिखने लगता है। और फिर बाल एकदम काले हो भी गये तो बाकी चेहरे मोहरे का क्या करोगे? चेहरे पर ये जो झुर्रियां हैं, या आँखों के नीचे की झाईं, या गड्ढों में घुसती अँखियाँ। किसे किसे सँभालोगे? कहाँ कहाँ हाथ लगाओगे?
और फिर इस सब छद्म में कितनी मेहनत लगती है, कितना छिपाव-दुराव करना पड़ता है? कोई कुँवारी कन्या या कुँवारे सुपुत्र यह सब करें तो समझ में आता है, लेकिन यहाँ तो वे भी रंगे-चंगे नज़र आते हैं जिनके बेटों के बाल खिचड़ी हो गए।
‘आहत’ जी लेखक हैं और मेरे परिचित हैं। उनके लेख अखबारों, पत्रिकाओं में छपते हैं, लेकिन जब लेख के साथ उनका चित्र छपता है तो पहचानना मुश्किल हो जाता है। ‘आहत’ जी के केश सफेद हैं, घनत्व कम हो चुका है। यहाँ वहाँ से चाँद झाँकती है। चेहरा भी उसी के हिसाब से है, लेकिन जो तस्वीर छपी है वह किसी जवान पट्ठे की है, जिसका चेहरा जवान और बाल काले हैं। पहचानने में देर लगती है, लेकिन चेहरे के कुछ सुपरिचित निशानों से पहचान लेता हूँ। आँखें वही हैं, नाक का घुमाव भी वही है। ज़ाहिर है तस्वीर कम से कम दस साल पुरानी है। बुढ़ापे की तस्वीर छपाने में शर्म आती है।
एक और परिचित की तस्वीर अखबार में देखता हूँ। उन्हें विश्वविद्यालय से डॉक्टर की उपाधि मिली है। उपाधि के लिए काम करते करते नौकरी के पन्द्रह-बीस साल गुज़र गये। बुढ़ापा दस्तक देने लगा। लेकिन उपलब्धि हुई तो फोटो तो छपाना ही है। इसलिए फोटो उस वक्त की छपा ली जब एम.ए. पास किया था। मित्र-परिचित हँसें तो हँसें, जो लोग नहीं जानते वे तो कम से कम उन्हें पट्ठा समझें।
एक परिचित का बालों से विछोह हो चुका है।खोपड़ी का आकार-प्रकार दिन की तरह साफ हो गया है। लेकिन जब भी फोटो छपता है, सिर पर काले घुंघराले बाल होते हैं। ज़ाहिर है, यह भी पुराने एलबम का योगदान है।
बुढ़ापे में यह सब करने की ललक क्यों होती है? क्या जवानी का भ्रम पैदा करके किसी कन्या को रिझाना है? यदि भ्रमवश कोई कन्या अनुरक्त होकर आपके दरवाज़े पर आ ही गयी तो आपका असली रूप देखकर उसके दिल पर क्या गुज़रेगी? इसके अलावा, जवानी का भ्रम फैलाते वक्त उस महिला का खयाल कर लेना भी उचित होगा जो आपकी संतानों की अम्माँ कहलाती है। आपकी फोटो को ही आपका असली रूप मान लिया जाए तो उस सयानी महिला का परिचय आप किस रूप में देंगे?
मेरे खयाल में ये सब कवि केशवदास के चेले-चाँटे हैं। उम्र निकल गयी, लेकिन उसे मानने को तैयार नहीं। रंगाई-पुताई में लगे हैं, जैसे कि पोतने से खस्ताहाल इमारत नयी हो जाएगी। अरे भई, शालीनता से बुढ़ापे को स्वीकार कर लो। हर उम्र की कुछ अच्छाइयाँ होती हैं। लेकिन जवानी के लिए ही हाहाकार करते रहोगे तो न इधर के रहोगे, न उधर के। बुड्ढों से तुम बिदकोगे और जवान तुमसे बिदकेंगे। अंगरेज़ कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग समझदार था। उसने कहा था, ‘आओ, मेरे साथ बूढ़े हो। ज़िन्दगी का सबसे अच्छा वक्त अभी आने को है।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश