श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 261 ☆ आओ संवाद करें…(2) ?

लगभग डेढ़ माह पहले डेंगू ने जकड़ लिया था। परिणामस्वरूप सप्ताह भर अस्पताल में रहना पड़ा। व्याधि की जकड़न और अशक्ति के चलते लेखन भी विशेष नहीं हो पा रहा था। औषधि के प्रभाव से दिन में सोने लगा था जिससे देर रात तक जागता रहता। तथापि भोर के समय उठने का अभ्यास बना रहा।

हाँ, बिस्तर पर पड़े होने के कारण निरर्थक बीत रहा समय, निरर्थक बीत रहा जीवन, निरंतर व्यथित कर रहे थे‌। इसी स्थिति में पाँच दिन बीत गए। आज छठा दिन था। स्वास्थ्य में सुधार था पर अशक्ति भी थी।

इस समय भोर के साढ़े चार बजे थे। मैं अस्पताल के कॉरिडोर में यथासंभव चक्कर लगा रहा था। बदली हुई स्थितियों में यह मेरा ‘मॉर्निंग वॉक’ था। मुख्य फाटक बंद था। अतः बाहर जाने की सुविधा नहीं हो सकती थी। स्टाफ, मरीज़ सब सोए हुए और बिना पदचाप के, दबे पाँव मैं भ्रमण कर रहा था। 

लगभग छह बजे फाटक खुला। अस्पताल शहर की मुख्य सड़क पर है पर ‘स्मार्ट सिटी प्रकल्प’ के अंतर्गत बने चौड़े फुटपाथ के चलते भ्रमण की सुविधा थी। यह अस्पताल एक डॉक्टर मित्र का है। अत: मेरे लिए बाहर जाने में कोई कठिनाई नहीं थी। यहाँ से लगभग दो सौ मीटर दूर पोहे के लिए प्रसिद्ध एक होटल की शाखा है। वहाँ की चाय भी लोकप्रिय है। आज अनेक दिनों बाद चाय पीने की इच्छा जागी।

मैंने मनोबल बटोरा और धीरे-धीरे चलता हुआ उस होटल तक जा पहुँचा। होटल के सामने बड़ा अहाता था। तीनों ओर लगी हरी बाड़, गमलो में सजाकर रखे बड़े पौधे और उनके बीच करीने से लगी हुई टेबल- कुर्सियाँ। वातावरण से मन प्रसन्न हो उठा। मैं एक कुर्सी पर बैठ गया। बैठने से जैसे जान में जान आई।

देखता हूँ कि किसी महाविद्यालय के बारह-पंद्रह छात्र-छात्राएँ वहाँ जलपान कर रहे हैं। हँसी-मज़ाक करते, खाते-पीते युवा। फिर देखता हूँ कि उन विद्यार्थियों के समूह में से एक युवक अपने साथियों से कुछ कह रहा है और उसके साथी मुझे निहार रहे हैं। अनुमान लगाया कि संभवत: मेरी अस्त-व्यस्त स्थिति, बढ़ी हुई दाढ़ी, सलाइन लगाने के लिए हाथ में लगे आई.वी.सेट को देखकर वे कुछ चर्चा कर रहे हों।

इस बीच मेरी चाय आ गई। मैं धीरे-धीरे चुस्कियाँ लेकर चाय पीने लगा। उधर उन छात्र-छात्राओं का जलपान भी समाप्त हो चुका था। वे अब होटल से बाहर जा रहे थे। मैंने पाया कि वह युवक मेरी ओर आ रहा है। अनुभव हुआ कि वह मुझसे कुछ कहना चाहता है। निकट आकर उसने नमस्कार किया। फिर बोला, ‘अंकल आपको क्या हुआ है? अब बहुत कमज़ोर लग रहे हैं? क्या मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूँ?” उस बच्चे के शब्दों की आत्मीयता ने भाव-विभोर कर दिया। उसे धन्यवाद देते हुए मैंने अपनी स्थिति की संक्षिप्त जानकारी दी। फिर वह बोला, “आप बिल्कुल मेरे चाचा की तरह दिखते हैं। आप आए तब से मैं आपको ही देख रहा था। अपनी तबीयत का ध्यान रखिए। क्या मैं आपको अस्पताल तक छोड़ दूँ?” मैंने सधन्यवाद इंकार किया। मालूम चला कि वह हिमाचल प्रदेश से है। ये सारे विद्यार्थी कोई शॉर्ट कोर्स करने यहाँ आए हुए हैं। कोर्स पूरा हो चुका। अब अपने-अपने घर लौटेंगे। जाते-जाते भी वह लड़का मुझे स्वास्थ्य का ध्यान रखने का आग्रह करता गया। एक बार फिर उसने अस्पताल तक छोड़ने की बाबत पूछा।  एक बार फिर मैंने इंकार किया।

वह चला गया और मानस में विचार उठा कि  हम आपस में परिचित नहीं थे। इस जीवन में हमारा कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्बंध इससे पूर्व नहीं आया था। तब भी वह युवक आत्मीय संवाद कर गया।… सचमुच मनुष्य और मनुष्य के बीच संवाद कितना आवश्यक है!

कोरोनाकाल में मैंने ‘आओ संवाद करें’ शीर्षक से तात्कालिक स्थितियों पर लेखन और यू-ट्यूब के माध्यम से प्रबोधन का प्रयत्न किया था। उसी शृंखला को आगे बढ़ाते हुए कहना चाहूँगा कि  परिस्थितियाँ जैसी भी हों, मनुष्य और मनुष्य का संवाद युगों से जमी बर्फ़ पिघला सकता है। अपनी एक कविता याद हो आई,

विवादों की चर्चा में युग जमते देखे,

आओ संवाद करें,

युगों को पल में पिघलते देखें..।

मेरे तुम्हारे चुप रहने से बुढ़ाते रिश्ते देखे,

आओ संवाद करें,

रिश्तों में दौड़ते बच्चे देखें..।

तो देर किस बात की, “आओ संवाद करें।”

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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