श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 314 ☆

?  व्यंग्य – हुनरमंद हो, तो सरकारी नौकरी से बचना ! ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 हुनरमंद हो, तो सरकारी नौकरी न करना वरना लोकायुक्त धर लेगा। हुनरमंद होना भी कभी मुश्किल में डाल देता है। मेरा दोस्त बचपन से ही बड़ा हुनरमंद है। स्कूल के दिनों से ही वह पढ़ाई के साथ साथ छोटे बच्चों को ट्यूशन देकर अपनी फीस और जेब खर्च सहज निकाल लेता था। जब कभी कालेज में फन फेयर लगता तो वह गोलगप्पे और चाय की स्टाल लगा लेता था। सुंदर लड़कियों की सबसे ज्यादा भीड़ उसी की स्टाल पर होती और बाद में जब नफे नुकसान का हिसाब बनता तो वह सबसे ज्यादा कमाई करने वालों में नंबर एक पर होता था।

कालेज से डिग्री करते करते वह व्यापार के और कई हुनर सीख गया। दिल्ली घूमने जाता तो वहां से इलेक्ट्रानिक्स के सामान ले आता, उसकी दिल्ली ट्रिप तो फ्री हो ही जाती परिचितों को बाजार भाव से कुछ कम पर नया से नया सामान बेचकर वह कमाई भी कर लेता। बाद में उसने सीजनल बिजनेस का नया माडल ही खड़ा कर डाला।  राखी के समय राखियां, दीपावली पर झिलमिल करती बिजली की लड़ियां, ठंड में लुधियाना से गरम कपड़े, चुनावों के मौसम में हर पार्टी के झंडे, टोपियां, गर्मियों में लखनऊ से मलमल और चिकनकारी के वस्त्र वह अपने घर से ही उपलब्ध करवाने वाला टेक्टफुल बंदा बन गया। दुबई घूमने गया तो सस्ते आई फोन ले आया मतलब यह कि वह हुनरमंद, टेक्टफुल और होशियार है।

इस सबके बीच ही वह नौकरी के लिये कांपटेटिव परीक्षायें भी देता रहा। जैसा होता है, स्क्रीनिग, मुख्य परीक्षा, साक्षात्कार, परिणाम पर स्टे वगैरह की वर्षौं चली प्रक्रिया के बाद एक दिन एक प्रतियोगी परीक्षा का परिणाम आया और हमारा मित्र द्वितीय श्रेणि सरकारी कर्मचारी बन गया। अब अपने हुनर से वह दिन भर का सरकारी काम घंटो में निपटा कर फुर्सत में बना रहता। बैठा क्या न करता उसने अपना साइड बिजनेस, पत्नी के नाम पर कुछ और बड़े स्तर पर डाल दिया। उसके पद के प्रभाव का लाभ भी मिलता चला गया और वह दिन दूना रात चौगुना सफल व्यापार करने लगा। कमाई हुई तो गहने, प्लाट, मकान, खेत की फसल भी काटने लगा। जब तब पार्टियां होने लगीं।

गुमनाम शिकायतें, डिपार्टमेंटल इनक्वायरी वगैरह शुरु होनी ही थीं, किसी की सफलता उसके परिवेश के लोगों को ही सहजता से नहीं पचती। फिर एकदिन भुनसारे हमारे मित्र के बंगले पर लोकायुक्त का छापा पड़ा। दूसरे दिन वह अखबार की सुर्खियों में सचित्र छा गया। अब वह कोर्ट, कचहरी, वकीलों, लोकायुक्त कार्यालय के चक्कर लगाता मिला करता है। हम उसके बचपन के मित्र हैं। हमने उसके हुनर को बहुत निकट से देखा समझा है, तो हम यही कह सकते हैं कि हुनरमंद हो, तो सरकारी नौकरी न करना वरना लोकायुक्त धर लेगा।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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