श्रीमति विशाखा मुलमुले
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना ‘बावरां मन ‘। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकते हैं । )
☆ बावरां मन ☆
खिड़की से मेरे दिखती है
मुख्य सड़क
दिखते हैं आते – जाते लोग
दिख जाता है डाकिया
उसके दिखते ही
जाग जाता मेरा कौतूहल
देखती हूँ दूर से उसके झोले को
उसके हाथों संग संगत बिठाती
खोज में जुट जाती मेरी नजर
कुछ रंग – बिरंगे ख्वाब
जादूगर जिस तरह यकबयक
निकालता रुमाल से कबूतर
या सड़क किनारे अनेक चिट्ठियों में से
भविष्यवाणी की एक चिट्ठी चुनता सुग्गा
ठीक उसी तरह डाकिया भी
टटोलता तमाम खतों में से
ख़ास पतों की डाक
कुछ एक मिनट का चलता यह खेल
तब तक कयास का मेरे होता है चरम
मेरा ही कौतूहल
मेरे ही प्रश्न
अंत में होती मैं ही
निराश
क्योंकि ,
सुस्त है चिट्ठीरसां और
मसरूफ मुझे लिखने वाला भी
करता है मीठी – मीठी बातें
बस भेजता नहीं खतों – खतूत
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र