डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – उसूल वाला आदमी ☆
उस दफ्तर में घुसते ही एक खास गंध आती है। सच तो यह है कि ज़्यादातर दफ्तरों से यह गंध आती है। अहाते में घुसते ही वहाँ घूमते कर्मचारी आँखें सिकोड़कर मुझे नापने-तौलने लगते हैं। सबकी आँखों में एक तराजू टंगा है, आदमी की हैसियत की नाप-तौल करने वाला।
मैदान के कोने से एक आदमी मेरी तरफ बढ़ता है। उसकी आँखों में चालाकी और लोभ की पर्त है जिसके पार उसके भीतर के आदमी को खोज पाना मुश्किल है। मेरे पास आकर झूठी विनम्रता से पूछता है, ‘मेरे लायक सेवा, हुज़ूर?’
मैं पूछता हूँ, ‘आप क्या करते हैं?’
वह हाथ फैलाकर कहता है, ‘बस जनसेवा करता हूँ हुज़ूर। कमिश्नर से लेकर मामूली कारिन्दे तक कोई काम हो, मुझे मौका दीजिए। महीनों का काम घंटों में कराता हूँ। दरअसल दुनिया का कोई काम मुश्किल नहीं है। दिक्कत यह है कि लोग सही रास्ता अख्तियार नहीं करते।’
मैं समझ गया कि वह दलाल था। ग्राहक से लेकर बड़ा टुकड़ा ऊपर पहुँचाता था और छोटा टुकड़ा अपने पेट में डालता था,या शायद छोटा टुकड़ा ऊपर पहुँचाता था और बड़ा टुकड़ा खुद गटक जाता था।
वह बड़ी उम्मीद से मुझे देख रहा था। मैंने कहा, ‘मुझे नौरंगी बाबू से मिलना है। ‘
नौरंगी बाबू का नाम सुनते ही उसके चेहरे की चमक किसी फ्यूज़्ड बल्ब की तरह बुझ गयी। कुछ निराशा के स्वर में बोला, ‘ऊपर चले जाइए हुज़ूर। नौरंगी बाबू उसूल वाले आदमी हैं। उनके काम में कोई दखल नहीं देता। सीधे उन्हीं से मिल लीजिए। काम ज़रूर हो जाएगा।’
वह मुझसे निराश होकर किसी दूसरे ग्राहक की खोज में निकल गया और मैं सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।
नौरंगी बाबू मेरे लिए अपरिचित नहीं थे। सलाम-दुआ का रिश्ता था, लेकिन उनसे दफ्तर में मिलने के सौभाग्य से मैं अभी तक वंचित था।
नौरंगी बाबू को ढूँढ़ने में दिक्कत नहीं हुई। वे कई मेज़ों के पार अपनी कुर्सी पर आसीन थे। बीच वाली मेज़ों के लोगों ने उम्मीद की नज़रों से मेरी तरफ देखा और मुझे आगे बढ़ते देख नज़रें झुका लीं। नौरंगी बाबू ने मुझे दूर से चश्मे के ऊपर से देखा और फिर वापस फाइल पर निगाहें टिका दीं। जब बिलकुल नज़दीक पहुँच गया तब फिर आँखें उठाकर देखा और हँसकर नमस्कार किया।
मुझे बैठाने के बाद वे स्नेह-पगे स्वर में बोले, ‘कैसे तकलीफ की?’
मैंने अपना काम बताया तो वे बोले, ‘हाँ,आपकी फाइल मेरे पास है। मैं उम्मीद भी कर रहा था कि आप किसी दिन पधारेंगे। ‘
उन्होंने कागज़ों के ढेर से मेरी फाइल का अन्वेषण किया और उसकी धूल झाड़कर उसे उलटा पलटा।
मैंने पूछा, ‘तो कब तक काम हो जाएगा?’
नौरंगी बाबू बोले, ‘अरे, जब हमारे पास है तो काम तो हो गया समझो। ‘
फिर वे कुछ क्षण मौन रहकर बोले, ‘दरअसल मैं एक धर्मसंकट में फंस गया था। इसीलिए आपकी फाइल रुक गयी।’
मैंने पूछा, ‘कैसा धर्मसंकट?’
नौरंगी बाबू बोले, ‘धर्मसंकट ऐसा है भइया, कि पहले मैं अपने परिचितों दोस्तों की सेवा बिना किसी लालच के कर देता था और अपरिचितों से अपने पेट के लिए कुछ दक्षिणा ले लेता था। लेकिन इस भेदभाव की नीति के कारण मुझे कई बार नीचा देखना पड़ा, कई बार लोगों की बातें सुननी पड़ीं। एक से लें और दूसरे से न लें,यह तो अन्याय वाली बात हो गयी न?तो मैंने उसूल बना लिया कि सबसे समान व्यवहार करना, चाहे अपनी आत्मा को कितना भी कष्ट क्यों न हो। दोस्तों से लेने में आत्मा को कष्ट तो होगा न?’
मैंने सहमति में सिर हिलाया तो वे बोले, ‘अब मेरे उसूल की रक्षा करना आप लोगों का काम है। आप लोग नाराज़ हो जाओगे तो हमारा उसूल कैसे निभेगा?’
फिर वे कुछ याद करते हुए बोले, ‘मेरे परिचित एक विभाग के इंस्पेक्टर थे। पक्के उसूल वाले। सबके साथ एक सा व्यवहार। एक बार एक आदमी से दो सौ में सौदा हुआ। वह आदमी आया और उनकी मुट्ठी में पैसे दबाकर चला गया। इंस्पेक्टर साहब ने मुट्ठी खोलकर गिने तो पाँच रुपये कम थे। तुरन्त स्कूटर पर भागे और आदमी को दूर चौराहे पर पकड़ा। दस बातें सुनायीं और वहीं पाँच रुपये वसूल किये। ऐसे होते हैं उसूल वाले लोग। ‘
वे फिर बोले, ‘पहले हम अपने उसूल में कच्चे थे। कभी कभी लोगों को माफ कर देते थे। फिर एक दिन हमने राजा हरिश्चन्द्र की कथा पढ़ी कि उन्होंने कैसे उसूल की खातिर अपनी पत्नी से आधा कफन मांग लिया था। तब से हमने सोच लिया कि उसूल से रंचमात्र नहीं डिगना है। राजा हरिश्चन्द्र मेरे आदर्श हैं। ‘
वे थोड़ा रुके, फिर बोले, ‘एक बार मेरे गुरूजी आये थे। उन्होंने मुझे कॉलेज में पढ़ाया था। मैंने उन्हें भी अपना उसूल बताया और चरण छूकर आशीर्वाद माँगा कि अपने उसूल पर डटा रहूँ। गुरूजी उस दिन गये तो आज तक लौटकर नहीं आये। उनकी फाइल मेरे पास पड़ी है। समझ में नहीं आता कि क्या करूँ। ‘
मैंने पूछा, ‘तो मेरे काम में क्या करना है?’
वे बोले, ‘करना क्या है?काम तो आपका जैसे हो ही गया। बस दो लाइन का नोट देना है। वही उसूल वाला मामला आड़े आ रहा है। आप दोस्त को भेंट मानकर सौ रुपये दे जाइए। मेरे उसूल की रक्षा हो जाएगी और आपका काम हो जाएगा। ‘
वे फिर बोले, ‘दरअसल अब उसूल के मामले में इतना पक्का हो गया हूँ कि सगे बाप और भाई के मामले में भी उसूल नहीं छोड़ता। अब सोचिए कितनी तकलीफ भोगता हूँ। ‘
मैंने उठकर कहा, ‘मैं फिर आऊँगा। ‘
नौरंगी बाबू हाथ जोड़कर बोले, ‘ज़रूर आइए। ‘
वे मुझे छोड़ने दरवाज़े तक आये। दरवाज़े पर बोले, ‘काम की चिन्ता मत कीजिएगा। काम तो समझिए हो ही गया। वह उसूल वाला मामला न होता तो कोई दिक्कत ही नहीं थी। ‘
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश