श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक व्यावहारिक लघुकथा “बुनियादी अंतर”। )
गौरव के क्षण : यह हमारे लिए गर्व का विषय है कि – आदरणीय श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी को हरियाणा में ‘आनंद सर की हिंदी क्लास’ नामक युटुब चैनल में आपका परिचय प्रसिद्ध साहित्यकार के रूप में छात्रों से कराया गया जिसका प्रसारण गत रविवार को हुआ।
स्मरणीय है कि आपकी रोचक विज्ञान की बाल कहानियों का प्रकाशन प्रकाशन विभाग भारत सरकार दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। वहीँ आपकी 121 ई बुक्स और इतनी ही लगभग कहानियां 8 भाषाओं में प्रकाशित और प्रसारित हो चुकी हैं और कई पुरस्कारों से नवाजा जा चूका है।
ई अभिव्यक्ति की और से हार्दिक शुभकामनाएं।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 43☆
☆ लघुकथा- बुनियादी अंतर ☆
“जानते हो काका ! आज थानेदार साहब जोर-जोर से चक्कर लगा कर परेशान क्यों हो रहे है ?” रघु अपने घावों पर हाथ फेरने लगा, “मेरे रिमांड का आज अंतिम दिन है और वे चोरी का राज नहीं उगलवा सके.”
“तू सही कहता है रघु बेटा ! आज उन की नौकरी पर संकट आ गया है. इसलिए वे घबरा रहे है,” कह काका ने बीड़ी जला कर आगे बढ़ा दी.
“जी काका. इस जैसे-जलाद बाप ने मुझे मारमार कर बिगड़ दिया. वरना किसे शौक होता है, चोर बनने का.” यह कहते ही रघु ने अपना चेहरा घुमा लिया. उस के हाथ आंख पर पहुँच चुके थे.
मगर जैसी ही वह संयत हुआ तो काका की ओर मुड़ा, “काका हाथ पैर बहुत दर्द कर रहे है. यदि इच्छा पूरी हो जाती तो?”
“क्यों नहीं बेटा.” काका रघु के सिर पर हाथ फेर कर मुस्करा दिए. वे रघु की इच्छा समझ चुके थे.
कुछ ही देर में दारू रघु के हलक में उतर चुकी थी और ‘राज’ की मजबूत दीवार प्यार के स्नेहिल स्पर्श से भरभरा कर गिर चुकी थी .
© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”