सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – मंज़िल अपनी -अपनी।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 38 – संस्मरण – मंज़िल अपनी -अपनी
राजस्थान भारत का एक ऐसा ख़ूबसूरत राज्य है जहाँ आज भी असंख्य लोग अपनी- अपनी कलाओं से जुड़े हुए हैं। ये वे लोग हैं जो कई पुश्तों से वही कार्य करते हैं जो उनके पूर्वज करते आए थे। बस अंतर यदि कुछ है तो यह कि अब इन लोगों के कार्य और कलाओं को करने की विधि में आधुनिकता की छाप दिखाई देती है।
जयपुर राजस्थान का वह हिस्सा है जिसे गुलाबी शहर कहा जाता है। यहाँ दो हिस्से हैं – एक पुराना जयपुर और दूसरा नया जयपुर। पहाड़ों पर बने अपूर्व किले यात्रियों का आकर्षण केंद्र है। शहर के बीच एक जल महल है जिसे देखने लोग यहाँ आया करते हैं।
अब इसमें एक आलीशान रेस्तराँ भी बनाया गया है।
जयपुर शहर से 22 किलोमीटर की दूरी पर एक विशाल खुले मैदान पर एक छोटा – सा गाँव स्थापित किया गया है। वास्तव में यह कोई बसा -बसाया गाँव नहीं है। इस स्थान को राजस्थानी गाँव का कृत्रिम रूप देकर लोगों का मनोरंजन किया जाता है। इस स्थान को ‘चोखी ढाणी’ कहा जाता है इसका अर्थ है *सुंदर या अच्छा गाँव। *
इस सुंदर गाँव के प्रवेश द्वार पर यात्रियों का स्वागत माथे पर टीका लगाकर और “राम राम साईं” कहकर किया जाता है। स्वागत करने वाले राजस्थानी पोशाक में ही दिखाई देते हैं। इस गाँव के भीतर प्रवेश करने के लिए ₹300 का टिकट है। (आज शायद परिवर्तन आया होगा मगर जिस समय की मैं बात कर रही हूं 2007 तब इसकी कीमत ₹300 ही थी)
शाम को 7 से रात के 12 बजे तक यहाँ विभिन्न प्रकार की कलाओं का प्रदर्शन किया जाता है। गाँव के घर, मिट्टी से बनी दीवारे, दीवारों पर राजस्थानी कलाकृतियाँ, चित्र, कुआँ, पनघट आदि सभी दृश्य यहाँ देखने को मिलेंगे। साथ ही राजस्थानी भोजन का विभिन्न जगहों पर आयोजन भी दिखाई देता है। छोटे -छोटे भोजनालय की फ़र्श जो गोबर मिट्टी से लिपी हुई होती है उस पर दरियाँ बिछाकर चौकियों पर थाली कटोरे सजाकर गरमागरम भोजन परोसा जाता है। यात्री जयपुर जाने पर इस स्थान का दर्शन अवश्य करते हैं।
मैं जब जयपुर पहुँची तो मुझसे भी कहा गया कि चोखी ढाणी का मैं निश्चित रूप से दर्शन करूँ। उस दिन शाम के समय निश्चित समय पर होटल में हमें चोखी ढाणी ले जाने के लिए गाड़ी आ गई और मैं होटल के अन्य यात्रियों के साथ चोखी ढाणी के लिए रवाना हुई। चोखी ढाणी में पहुँचते ही मुझे ऐसा लगा मानो राजस्थान के किसी फलते -फूलते गाँव में आ गई हूँ। चारों तरफ दीये जल रहे थे। चूल्हे पर भोजन पक रहा था। बाजरे की रोटी, बेसन के पकोड़े से बनी तरी वाली सब्ज़ी और दाल बाटी की खुशबू हवा में भरी थी।
सारा वातावरण आनंद से सराबोर था। कहीं कोई जादू दिखा रहा था तो कोई कठपुतली का नाच, तो कहीं कुछ पुरुष और स्त्री लोक गीत गा रहे थे, कहीं कुछ पुरुष ढोलक बजा रहे थे और मंच पर सजी-धजी युवा लड़कियाँ घड़े पर कई घड़े अपने सिर पर रखकर नृत्य दिखा रही थीं। नाचती हुई वे बड़े से परात के किनारों पर खड़ी होकर ढोल के धुनों पर नाच रही थीं। सारा दृश्य अद्भुत था और मन को न केवल प्रसन्न कर रहा था बल्कि यह सोचने के लिए भी विवश कर रहा था कि हमारे देश में कितनी अद्भुत कलाएँ आज भी जीवित हैं।
मैं अकेली ही इस गाँव के हर घर के आँगन में चल रहे विभिन्न कार्यक्रमों का आनंद ले रही थी। दो लाल पगड़ी वाले ज्योतिषी नज़र आए जिनके इर्द-गिर्द कई लोग बैठे थे और ये ज्योतिषी जी उन्हें उनके हाथ की रेखाएँ देखकर उनका भविष्य बता रहे थे। खुशगुबार माहौल था। कुछ औरतें काँच की डिज़ाइनदार चूड़ियाँ पहनकर खुश हो रही थीं। अपनी अपनी कलाइयाँ घुमाकर अपने साथियों को चूड़ियों की खनक सुना रही थीं। वहीं पर कुछ लोग लाख की चूड़ियाँ बना रहे थे। उस पर विभिन्न प्रकार की मोतियाँ जड़ रहे थे जो देखने में अद्भुत सुंदर थे। कुछ लोग राजस्थानी मोजड़ियाँ पहन-पहन कर अपने पैरों के माप की मुजड़ियाँ तलाश रहे थे। कुछ वृद्धा औरतें पास बैठी अन्य महिलाओं के हाथों में सुंदर मेहंदी के फूल और आकृतियाँ काढ़ रही थीं। इस गाँव में छोटे-बड़े सब व्यस्त थे। यात्री तो खुश थे ही गाँववासी भी प्रसन्न थे। कलाकारों को अपनी कला की प्रशंसा सुन और भी खुशी हो रही थी।
अचानक मेरा ध्यान एक सुरीली आवाज़ की ओर आकर्षित हुआ। यह आवाज़ इस भीड़ से हटकर और सब शोर से उठकर मेरे कानों में पड़ने लगी। मैं भीड़ से हटकर उस आवाज़ की दिशा की ओर चलने लगी। चोखी ढाणी के पूर्वी दिशा में एक कृत्रिम तालाब -सा बना हुआ था। उस पर एक छोटा- सा पुल बनाया गया था। उस पुल को पार कर मैं तालाब की दूसरी ओर पहुँची। एक बुज़ुर्ग फटी हुई दरी पर बैठे हुए थे और उनके साथ एक अट्ठारह- उन्नीस वर्षीय युवक बैठा था। वृद्ध के सामने बाजा रखा हुआ था और वे आकाश की ओर ताकते हुए बाजे पर उँगलियाँ फेरते हुए कबीर के दोहे गा रहे थे। उसके साथ मधुर आवाज़ में उसका बेटा साथ दे रहा था। दोनों की आवाज़ में एक अद्भुत मिठास थी और साथ ही गाने का अंदाज भी निराला था। ये पिता-पुत्र राजस्थान के किसी छोटे से कबीले के निवासी थे और सूफी संतों की वाणी गाया करते थे। चोखी ढाणी में इसी वर्ष पहली बार वे गीत गाने तथा लोगों का मनोरंजन करने आए थे। उनके इर्द-गिर्द कई लोग बैठे गीतों का आनंद ले रहे थे। कई विदेशी यात्री भी थे जो उनकी धुनों पर थिरक रहे थे। मैं रात के 12 बजे तक मंत्रमुग्ध होकर उनके गीत सुनती रही। मुझे भोजन की भी सुध न रही और मैं उस मीठी आवाज के जादू में खोई हुई उनके गाए लोकगीत और संतवाणियों को गुनगुनाती हुई अपने होटल में लौट आई।
उन दोनों की आवाज मेरे हृदय की गहराई को छू गई थी। उनका जब गाना समाप्त हुआ और भीड़ भी छँटने लगी तो मैं अपनी जिज्ञासावश उनके और समीप जा बैठी थी। उस लड़के ने मुझे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और शुद्ध भाषा में पूछा, “आंटी जी आपको हमारा गाना अच्छा तो लगा न!” मैं क्या कहती, मैं तो मंत्रमुग्ध ही हो गई थी। दोनों की आवाज की मैंने प्रशंसा की, दिल खोलकर युवा की खुली और ऊँची आवाज की विशेष प्रशंसा की तथा अपने दिल की गहराई से युवक को आशीर्वाद दिया।
बातचीत का सिलसिला जारी रहा तो युवक ने अपना नाम आफ़ताब बताया। उसके पिता वृद्ध थे तथा दृष्टिहीन भी थे। वह एक सूफ़ी गायक तथा अजमेर के निवासी थे। पिता का नाम अशफाक मियाँ था। अजमेर में रहकर उनकी रोज़ी-रोटी अब नहीं चलती थी इसलिए वे जयपुर आ गए थे और इसी साल चोखी ढाणी में अपने मधुर स्वर का जादू उन्होंने चलाना प्रारंभ कर दिया था।
आफ़ताब दिन में कॉलेज जाता और रात के समय चोखी ढाणी में गीत गाता। गाँव बनानेवाली संस्था की ओर से उन्हें महीने में कुछ बंधी हुई रकम मिल ही जाती और साथ ही गाना सुनने के बाद लोग भी खुश होकर कुछ न कुछ रकम पुरस्कार स्वरूप अवश्य देते। दोनों मिलाकर उनका गुज़ारा हो जाता।
बातें करते – करते पता चला कि उसके तीन बड़े भाई भी थे पर आज कोई भी जवित नहीं हैं। उसकी बूढ़ी अम्मा थीं जो पिता की देखभाल किया करती थी अब वह भी नहीं रहीं। अपने घर की बातें करते हुए और अपनी अम्मा का ज़िक्र करते ही उसकी आँखें छलक उठीं। मैं उसके पास ही बैठी थी तो सांत्वना देते हुए मैंने उसके कंधे पर अपना हाथ रख दिया। दो मिनिट चुप रहने के बाद उसने स्वयं को संभाल ही लिया।
आफ़ताब का सप्ना था कि एक दिन वह महान गायक बनेगा। उसे गायकी की तालीम अपने पिता से ही मिली थी, वही उसके उस्ताद थे। कॉलेज से लौटकर नियमित रूप तीन -चार घंटे वह रियाज़ भी किया करता था।
इस वर्ष मैं कुछ स्कूलों के शिक्षकों को ट्रेनिंग देने के लिए जयपुर आई थी। बड़ी उत्कट इच्छा थी कि उस बाप – बेटे की सुरीली आवाज और सूफी संगीत का आनंद एक और दिन लूँ। पर मैं वहाँ रुक न सकी दूसरे ही दिन मुझे अहमदाबाद के लिए रवाना होना था।
युवक के हृदय की उच्च आकांक्षा को देखकर मेरा हृदय बाग – बाग हो उठा। मैं मन ही मन सोचने लगी कि क्या ईश्वर इसकी इच्छाओं को पूरी करेंगे ? उस इच्छा की पूर्ति के लिए वह हर दिन कड़ी मेहनत किया करता था।
कहते हैं भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। बात 2009 की है। मैं एक दिन अपने कमरे में कुछ लिख रही थी रात के कुछ 9:30 बजे होंगे अचानक मेरे कानों में आफ़ताब की वह परिचित मीठी आवाज सुनाई दी। पहले मैंने ध्यान से सुना तो अंदाज आया कि पड़ोस के घर में टीवी पर किसी कार्यक्रम में दिखाए जाने वाले गीत की वह आवाज़ थी। मैंने तुरंत टीवी लगाया, मुझे टीवी देखने में खास रुचि नहीं है परंतु आज उस आवाज को सुन मेरे मन ने मुझे सारे काम स्थगित करने पर विवश कर दिया। चैनलों की जानकारी नहीं जिस कारण टीवी के सारे चैनल ढूँढ़ने के लिए मजबूर कर दिया।
अब पता चला यह टीवी पर दिखाए जाने वाले एक कार्यक्रम का हिस्सा था। हाँ आफ़ताब ही तो था जो अब टीवी पर गीत गा रहा था! जयपुर के चोखी ढाणी की बात को गुज़रे दो वर्ष बीत चुके थे पर आफ़ताब की मधुर आवाज मेरे हृदय और मस्तिष्क पर छाई हुई थी। आफ़ताब की बात मैंने अपने परिवार वालों से भी की थी। उस दिन जब टीवी पर मैंने उसकी आवाज सुनी और उसे टीवी पर देखा तो मेरी बेटी ने कहा कि वह पिछले कुछ सप्ताहों से टीवी पर एक कार्यक्रम में गीत गाते हुए दिखाई दे रहा था। हिंदी सिनेमा के लिए पार्श्वगायकों की खोज के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित की गई थी इस प्रतियोगिता में हजार युवक -युवतियों ने हिस्सा लिया था। अब कुछ चुनिंदा गायकों के बीच प्रतियोगिता चल रही थी।
मैं कभी भी टीवी नहीं देखती थी पर जब से आफ़ताब गीत गाते हुए दिखाई देने लगा मैं तबसे बड़े चाव से उस कार्यक्रम को देखने बैठ जाती। हमारे घर में सब मेरा मज़ाक उड़ाने लगे। बेटियाँ कहती मम्मा तो सठिया गई हर रोज 9:30 बजे ही टीवी के सामने बैठ जाती हैं। पर मैं बच्चों को यह समझाने में सफल न हो सकी कि उस बालक की आवाज़ में क्या तो मिठास थी, क्या दर्द था और आलापों की तानों में पागल कर देने की क्षमता! आफ़ताब की आँखों में एक प्रसिद्ध गायक बनने का जुनून मैंने देखा था वह मैं शब्दों में बयाँ नहीं कर सकती थी।
आखिर वह दिन आ ही गया जब आफ़ताब ही असंख्य लोगों का पसंदीदा प्रिय गायक बना। रिकॉर्डिंग कंपनी द्वारा उसे एक करोड़ रुपये का कॉन्ट्रैक्ट मिला। एक सुंदर गाड़ी दी गई उसे और पचास लाख रुपये भी दिए गए।
कुछ दिनों तक हर पत्र-पत्रिकाओं में आफ़ताब की चर्चा, उसकी सफलता की कहानी, उसके जुनून की बातें, उसके आत्मविश्वास और मेहनत की मिसाल ही पढ़ने को मिलती रही। सुनने में आया कि उसने अपने पिता की आँखों का भी ऑपरेशन करवाया।
समय बीतता चला गया आफ़ताब की आवाज अब अक्सर सुनाई देती। कई नायकों के लिए वह सफल पार्श्वगायक सिद्ध हुआ। नए ज़माने का गायक ही नहीं, कई सफल एल्बम भी बना चुका। उसकी आवाज सदा ही मेरे कानों में गूँजती रही।
कुछ महीनों के बाद मैं अपनी एक सहेली को लेकर राजस्थान दर्शन के लिए गई। जयपुर में हम तीन-चार दिन रुकने वाले थे जिस दिन हम जयपुर पहुँचे उसी रात मेरी सहेली ने चोखी ढाणी जाने की बात की। मैंने उसे रास्ते में आफ़ताब की सफलता की कहानी सुनाई।
हम चोखी ढाणी पहुँचे। ठंड के दिन थे लोग राजस्थान की ठंडी का आनंद ले रहे थे। हम भी घूमने लगे। अचानक एक परिचित आवाज़ सुनकर मैं ठिठक गई। कदम अपने आप उस दिशा की ओर बढ़ चले। मैं अपनी सहेली का हाथ पकड़कर उसे खींचती हुई ले जाने लगी। मेरी गति देख वह हैरान हो गई ! हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ पहली बार मैंन आफ़ताब का गीत सुना था।
मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं। मेरी आँखों के सामने अशफाक मियाँ बैठे हुए थे। वह आज भी उतनी ही तल्लीनता और मिठास के साथ सूफी संतों की वाणी गा रहे थे। वही बाजा, वही जगह, वही व्यक्ति और वही फटी हुई दरी! पर आज वे अकेले थे। मेरे आश्चर्य की सीमा न थी ! आफ़ताब जैसे प्रसिद्ध और धनाढ्य गायक के पिता को इस ठंडी में इस तरह गीत गाने की क्या ज़रूरत थी? मेरी जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी जब उनका गीत समाप्त हुआ तो मैं उनके पास पहुँची, हाथ जोड़कर मैंने उनसे पूछा, ” उस्ताद जी आज तो आफ़ताब का सपना पूरा हो गया है। वह जो चाहता था उसे मिल गया है। फिर आप इस बुढ़ापे में इस ठंडी में यहाँ क्यों कष्ट सहन कर रहे हैं?
अशफाक मियाँ ने एक बार सजल नेत्रों से मेरी ओर देखा फिर दोनों बाहें फैलाकर आसमान की ओर देखते हुए बोले, ” यहीं से तो मेरे आफ़ताब का सफ़र शुरू हुआ था ना! उसे जहाँ जाना था वहाँ वह पहुँच चुका लेकिन मेरी जगह यही है। मैं अपनी कला को उसकी जड़ों से अलहदा नहीं कर सकता। वरना आप जैसे लोगों की यादों में हमारी आवाज़ कैसे घर बना सकेगी भला ! मैं तो इस जगह पर गीत गाकर अपना अहसान जताता हूँ। वह आफ़ताब का सपना था यह मेरा सपना है। आप जैसे यात्रियों की सेवा कर सकूँ इससे बढ़कर मेरी और कोई ख्वाहिश नहीं। खुदा हाफ़िज़ !
उस वृद्ध संत के प्रति मेरे हृदय में आदर की भावना और भी बढ़ गई और साथ यह भी स्पष्ट हो गया कि दो कलाकार एक दूसरे के हृदय से कितने भी जुड़े क्यों न हों उनके सपने और मंजिल अलग ही होते हैं। सच भी तो है कि कला को उसकी जड़ से अलग करना अर्थात उसमें परिवर्तन का समावेश होना। भला वृद्ध संत यह कैसै होने देते। हर किसी की अपनी- अपनी मंजिल होती है। शायद यही संसार का कटु सत्य भी है।
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