डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘पान और पीकदान‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 270 ☆

☆ व्यंग्य ☆ पान और पीकदान

कई बरस पहले मुंबई की जहांगीर आर्ट गैलरी में नीदरलैंड्स के कुछ मसखरे कलाकार आये। उन्होंने ‘कला’ के कुछ ऐसे नमूने पेश किये जो पवित्रतावादियों के लिए खासे तकलीफदेह थे। उन्होंने गैलरी में एक साफ सफेद कपड़ा रख दिया,  उसके बाद अपने खर्चे पर दर्शकों को पान पेश किये, और कपड़े पर थूकने को कहा । इस तरह कला की रचना हुई और बहुत से ‘आशु’ कलाकार पैदा हुए। मुश्किल यह हुई कि उत्साही दर्शकों की पीकें कपड़े की सीमा का अतिक्रमण करके गैलरी की दीवारों पर चित्रकारी करने लगीं। तब गैलरी के प्रबंधक को यह अभिनव कला-प्रयोग रोक देना पड़ा।

हमारे देश में भी लोगों को चीज़ों को बिगाड़ने का शौक कम नहीं है, यह बात अलग है कि गरीब देश होने की वजह से हम विदेश में घूम कर अपनी कला का प्रदर्शन नहीं कर पाते। देश के भीतर हमसे जितना बनता है अपना विनम्र योगदान देते रहते हैं। यहां आदमी बड़े शौक से घर की पुताई कराता है और तीन दिन बाद दीवार पर लिखा होता है, ‘जन-जन के चहेते पाखंडीलाल की पेटी में वोट देना न भूलें’ या ‘मर्दाना कमजोरी से छुटकारा पाने के लिए खानदानी हकीम निर्बलशाह के शफाखाने पर तशरीफ लायें’। भीतर बढ़िया बंगला बना होता है और सामने चारदीवारी पर भद्दी लिखावट में दस चीज़ों के विज्ञापन लिखे होते हैं। मुफ्त विज्ञापन का मौका कोई छोड़ना नहीं चाहता। आजकल मकान अपना होता है और चारदीवारी जनता जनार्दन की। चाहे वह उस पर लिखे, चाहे पान थूके।

यहां लोग खड़ी फसल के बीच में घुसकर, बेशर्मी से दांत निपोरते, फसल को रौंदते, चने के झाड़ उखाड़ लाते हैं। सार्वजनिक टोटियों को तोड़ देते हैं और फिर प्रशासन पर चढ़ बैठे हैं कि वह उन्हें ठीक नहीं करता और अमूल्य पानी का ‘अपव्यय’ हो रहा है। आगरा जाकर हम ताजमहल की दीवारों पर कोयले से अपना और अपनी महबूबा का नाम लिख आते हैं ताकि सनद रहे और इतिहास के काम आवे।

नीदरलैंड्स के कलाकारों ने गलती की जो दर्शकों को अपने पास से पान दिये। अगर वे दर्शकों से कह देते कि अपने पैसे से पान खाओ और फिर थूको, तब भी उन्हें हज़ारों स्वयंसेवक मिल जाते, क्योंकि इस देश में थूकने और चीज़ों को बिगाड़ने का शौक जुनून की हद तक है। यहां लोग अकारण ही इतना थूकते हैं कि देखकर ताज्जुब होता है। यहां लोग हर चीज़ पर थूकते चलते हैं— परंपराओं पर, ईमानदारी पर, न्याय पर और इंसानियत पर।

हमारे देशवासियों को यह भी याद नहीं रहता कि अब सड़क पर साइकिलों के अलावा मोटर और स्कूटर भी चलते हैं। साइकिल वाला चलते-चलते अपने दाहिने तरफ जगह खाली पाकर मुंह घुमा कर थूक देता है, तभी किस्मत का मारा स्कूटर वाला उसके बगल में पहुंचता है। आगे क्या होता है इसकी कल्पना आप पर छोड़ता हूं। साइकिल वाले का प्रेमोपहार पाने के बाद स्कूटर वाला सिर्फ उससे सड़क पर कुश्ती लड़कर हास्यास्पद ही बन सकता है। साइकिल वाले महाशय का तीर तो कमान से छूट चुका होता है, वापस नहीं हो सकता।

मैंने एक बार अपने घर की छत सौजन्यवश एक विवाह-भोज के लिए अर्पित की थी। बारातियों ने ऊपर भोजन किया और ऊपर ही पान खाये, जो आतिथ्य का ज़रूरी अंग है। लड़की वालों को चाहिए यह था कि वे पान बारातियों को नीचे उतरने पर पेश करते, लेकिन इतनी दूर तक उनका दिमाग नहीं गया। नतीजा वही हुआ जो होना था। बारातियों ने उतरते वक्त सीढ़ी के मोड़ पर मुक्त भाव से थूका। वैसे भी बाराती लड़की वाले की हर चीज़ को इस्तेमाल या नष्ट करने का अपना पुश्तैनी हक मानते हैं, भले ही वह चीज़ किराये की हो। सवेरे सीढ़ी का कोना पान की पीक से दमक रहा था। कई बार पुताई कराने पर भी वे पीक के दाग पेन्ट की सब तहें फोड़कर झांकते रहे।

वैसे थूकने पीकने की परंपरा हमारे देश में बहुत पुरानी है। राजाओं नवाबों के ज़माने में पान का खासा चलन था। हर दरबार और संभ्रांत घर में गिलौरीदान, पीकदान और उगालदान ज़रूरी थे। ज़्यादातर राजाओं नवाबों को कुछ काम धंधा होता नहीं था, इसलिए गिलौरी चबाना और पीक करना अनवरत चलते थे। कहते हैं कि नवाब वाजिदअली शाह का पान खाकर लोग बौरा जाते थे। उन दिनों पान का उपयोग प्रेम-आदर दिखाने के लिए भी होता था और ज़हर देने के लिए भी। अब न वे पान रह गये, न वे  पीकदान। रह गये नमक तेल लकड़ी के लिए भागते हम जैसे नामुराद लोग। इसीलिए अगर कुछ लोग पुराने ज़माने को याद करके अब तक सिर धुनते हैं तो कोई ग़लत काम नहीं करते।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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