श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 247 ☆

☆ संतोष के दोहे… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

चली किसी की ना यहां, जैसे रावण कंस

कर सकते ना दुष्ट कुछ, सदा यहाँ विध्वंस

*

यौवन का मत कीजिए, खुद से कभी गुमान

दो दिन का यह है अतिथि, समझो यह नादान

*

राह न सच की छोड़िए, गांठ बांध लो यार

झूठ लुभाता है सदा, पर देता अपकार

*

राष्ट्र धर्म सर्वोच्च है, सदा रखें हम याद

स्वारथ में जो भूलते, वो होते अपवाद

*

चलती खूब सिफारिशें, पाने को सम्मान

लेन – देन भी चल पड़ा, करते ऊंची शान

*

परिभाषा सुख की यहाँ, अलग अलग है मीत

सबकी अपनी चाहतें, सबके अपने गीत

*

मरती नित संवेदना, कौन यहाँ हमदर्द

भाव शून्य अब आदमी, ऐसे हैं अब मर्द

*

बाहर छलके प्रेम पर, अंतस में कुछ और

बहुरुपिया है आदमी, है यह ऐसा दौर

*

जब तक रहती पेट में, हर लेती है ज्ञान

मुखड़ा फीका सा करे, भूख बड़ी शैतान

*

पर धन की चाहत बुरी, रहिए इससे दूर

अच्छा है संतोष धन, पर धन है नासूर

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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