डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘साहित्य और ‘सुधी पाठक’ ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 275 ☆
☆ व्यंग्य ☆ साहित्य और ‘सुधी पाठक’ ☆
हर भाषा के साहित्य से जुड़े कुछ लोग होते हैं जिन्हें ‘सुधी पाठक’ कहा जाता है। ‘सुधी पाठक’ वे पाठक होते हैं जिनकी सुध या याददाश्त बड़ी तगड़ी होती है। किसी भी भाषा में निकलने वाली पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं और लेखकों की पिछले 25-50 साल की जानकारी सुधी पाठकों के पास मिल जाती है। इसलिए कोई लेखक जनता- जनार्दन की याददाश्त कमज़ोर मानकर कुछ लाभ लेने की कोशिश करता है तो सुधी पाठक लपक कर उसकी गर्दन थाम लेते हैं। हमला इतना अचानक होता है कि लेखक को जान छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। इसलिए जिन लोगों को अपनी इज़्ज़त प्यारी है उन्हें सुधी पाठकों से ख़बरदार रहना ज़रूरी है।
कुछ समय पहले एक प्रतिष्ठित कथा-पत्रिका में एक वरिष्ठ कथाकार की कहानी छपी। ज़्यादातर लोगों को उसमें कुछ भी गड़बड़ नज़र नहीं आया, लेकिन महीने भर के भीतर ही दो सुधी पाठक अपनी बहियों की धूल झाड़ते हुए मैदान में आ गये। लेखक पर आरोप लगा कि उनकी वह कहानी 25 साल पहले एक पत्रिका में छप चुकी है। उन सुधी पाठकों ने पत्रिका का नाम, संपादक का नाम, सन् वगैरह सब गिना दिया। लेखक के लिए सब दरवाज़े बन्द करते हुए उन्होंने लिखा कि उस पुरानी पत्रिका की प्रति उनके पास सुरक्षित है। दो में से एक सुधी पाठक ने बताया कि उन्होंने उस कहानी के भूतकाल में प्रकाशन का पता अपने व्यक्तिगत पत्रिकालय और पुस्तकालय को छान मारने के बाद लगाया। जहां ऐसे जागरूक और चुस्त पाठक हों वहां लेखक को हमेशा फूंक-फूंक कर पांव रखना होगा।
कुछ साल पहले सुधी पाठकों ने एक स्थापित कथा-लेखिका को संकट में डाल दिया था। लेखिका ने भी अपनी एक कहानी दुबारा कहीं छपा ली थी। बस, सुधी पाठकों ने अपनी बहियां पटकनी शुरू कर दीं और लेखिका को उन्हीं ‘याद नहीं’, ‘शायद भूल से’ वाले धराऊ बहानों की ओट लेनी पड़ी। मुश्किल यह है कि एक बार पकड़ में आने के बाद फिर कोई बहाना काम नहीं आता। सब जानते हैं कि कोई ‘भूल’ नहीं होती। लेखक जितने बहाने करता है उतने ही उसके झूठ के कपड़े टपकते जाते हैं।
कई साल पहले एक और कलाकार हिन्दी साहित्य में उभरे थे। वे दूसरों की कहानियों को कुछ समय बाद अपने नाम से छपा लेते थे। इतनी मौलिकता उनमें ज़रूर थी कि रचना का शीर्षक और पात्रों के नाम बदल देते थे। बड़े बहादुर और आला दर्ज़े के बेशर्म थे। रचना के साथ बाकायदा अपना फोटो और परिचय छपाते थे। कुछ भी पोशीदा नहीं रखते थे। लेकिन ज़माने से उनका सुख न देखा गया और एक दिन वे पकड़ में आ गये। मरता क्या न करता। उन्होंने बहाना गढ़ा कि वे कहानियों का संग्रह करने के आदी थे और उनकी पत्नी ने गलती से वह कहानी उनका नाम लिखकर पत्रिका को भेज दी थी। इस देश में वीर पुरुषों पर जब जब बड़ा संकट आता है तब तब वे बेचारी पत्नी को आगे कर देते हैं। कभी पत्नी के बल पर दया प्राप्त करने की कोशिश करते हैं, तो कभी पत्नी को जाहिल और मूर्ख बता कर अपनी करनी उसके सिर थोप देते हैं। बहरहाल, उन लेखक महोदय का यह बहाना चला नहीं और उनके उज्ज्वल साहित्यिक जीवन का असमय ही अन्त हो गया। साहित्य की इस बेवफाई के बाद अब वे शायद किसी और क्षेत्र में अपना हस्तलाघव दिखा रहे होंगे। अगर सुधी पाठक उनके पीछे न पड़ते तो अपनी जोड़-तोड़ के बल पर वे अब तक दो-चार साहित्यिक पुरस्कार अपनी झोली में डाल चुके होते।
दरअसल जब लेखक के प्रेरणास्रोत सूखने लगते हैं तब मजबूरी में पुरानी रचनाओं को ‘रिसाइकिल’ करना पड़ता है। कारण यह है कि शोहरत का चस्का आसानी से छूटता नहीं। ‘छुटती नहीं है काफ़िर मुंह से लगी हुई’। एक और बात यह है कि दुबारा छपाने का काम अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण रचनाओं के साथ ही हो सकता है क्योंकि महत्वपूर्ण रचनाएं सुधी पाठकों के ज़ेहन और ज़ुबान पर ज़्यादा रहती हैं। फिर भी सुधी पाठक का कोई भरोसा नहीं। जिस रचना को लेखक दो गज़ ज़मीन के नीचे दफ़न मान लेता है उसी को कंधे पर लादे सुधी पाठक दौड़ता चला आता है और लेखक इस साहित्यिक डिटेक्टिव का करिश्मा देखकर अपनी मूर्खता पर पछताता रह जाता है। लेकिन यह सब सामर्थ्यहीन लेखक ही करते हैं। जो सामर्थ्यवान होते हैं वे ‘न लिखने का कारण’ पर बहस भी चला लेते हैं और उस पर पुस्तक भी छपवा लेते हैं। यानी ‘चित्त भी मेरी, पट्ट भी मेरी’। कुछ लोग ज़िन्दगी भर ‘कागद कारे’ करके भी गुमनामी में डूबे रहते हैं और कुछ लिखने से मिली शोहरत को न लिखने का कारण बता कर उसे और लंबा कर लेते हैं। सामर्थ्यवान और सामर्थ्यहीन के बीच के फ़र्क का इससे बेहतर नमूना भला क्या होगा?
जो भी हो, यह ‘सुधी पाठक’ नाम का जीव खासा ख़तरनाक होता है। वह साहित्यिक नैतिकता का चौकीदार, साहित्य का ‘ओम्बड्समैन’ होता है। वह बड़े-बड़े लेखकों को भी नहीं बख्शता। सब लेखकों की कर्मपत्री उसके पास सुरक्षित होती है। उसकी नज़र जॉर्ज ऑरवेल के ‘बिग ब्रदर’ की नज़र से ज़्यादा तेज़ होती है। लेखक अपनी मर्यादा से तनिक भी दाएं-बाएं हुआ कि भारतवर्ष के किसी दूरदराज़ के कस्बे से एक सुधी पाठक हाथ उठाकर खड़ा हो जाता है। जिन लेखकों को अपनी रचनाओं की चोरी-बटमारी का डर हो वे सुधी पाठक के भरोसे निश्चिन्त सो सकते हैं।
चुनांचे, जिन लेखकों की स्याही सूख चुकी है उनके लिए सम्मान का मार्ग यही है कि सुधी पाठक को नमस्कार करके मंच से उतर जाएं। नयी बोतल में पुरानी शराब भरेंगे तो सुधी पाठक बोतल लेखक के मुंह पर मार देगा।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
आनंद आ गया। साधुवाद।
वैसे, आजकल रचनाओं का मौलिक, अप्रकाशित और अप्रसारित होना अनिवार्य कहां रह गया है?
-सुधी पाठक