श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 331 ☆
कविता – महानता मां की… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
महिमा मंडन कर खूब
बनाकर महान
मां को
मां से छीन लिया गया है
उसका स्व
मां के त्याग में
महिला का खुद का व्यक्तित्व
कुछ इस तरह खो जाता है
कि खुद उसे
ढूंढे नहीं मिलता
जब बड़े हो जाते हैं बच्चे
मां खो देती हैं
अपनी नृत्य कला
अपना गायन
अपनी चित्रकारी
अपनी मौलिक अभिव्यक्ति,
बच्चे की मुस्कान में
मां को पुकारकर
मां
उसका “मी”
उसका स्वत्त्व
रसोई में
उड़ा दिया जाता है
एक्जास्ट से
गंध और धुंए में ।
बड़े होकर बच्चे हो जाते हैं
फुर्र
उनके घोंसलों में
मां के लिए
नहीं होती
इतनी जगह कि
मां उसकी महानता के साथ समा सके ।
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© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈