सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – लघुकथा – डी.एन.ए. ।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 47 – लघुकथा – डी.एन.ए.
जय के कमरे की बत्ती जल रही थी। दरवाज़े का अधिकांश हिस्सा भिड़ाया हुआ ही था पर एक सीधी रोशनी की लकीर टेढ़ी होकर मेरे कमरे की फ़र्श पर पड़ रही थी। तो क्या वह भी अनिद्रा का शिकार है?
मैं उसके दर्द को समझ रहा था क्योंकि मैं स्वयं भुग्तभोगी था। अल्पायु में रुक्मिणी का सर्वस्व त्यागकर अचानक मेरे जीवन से रूठकर चली जाना मेरे लिए असह्य था।
रुक्मिणी मेरी केवल पत्नी या जीवन संगिनी ही नहीं थी। वह मेरी शक्ति थी। एक विचारधारा थी। वह सोच थी। किसी शिक्षक की भाँति मार्गदर्शन किया करती थी। विवाह के एक लंबे अंतराल के बाद हमें माता -पिता बनने का आनंद मिला था। शायद जय के रूप में मुझे खुशी देने के लिए ही वह जीती रही। उसके अचानक देहावसान से मैं टूट गया था। मरने का मन करता था पर मेरे सामने एक लक्ष्य था। जय को पालना था।
सबने कहा था, अपनों ने समझाया था, घरवालों ने सलाह दी, ससुरालवालों ने इच्छा व्यक्त की कि पुनर्विवाह कर लो पर मैं रुक्मिणी का स्थान किसी को न दे सका। वह मेरी रूह बन मुझ में ही समा गई थी।
मेरे चेहरे पर एक उदासी छाई रहती थी। नेत्र सदैव तरल रहते। मेरा चीत्कार करने को मन करता था पर जय को देख अपने भावों का दमन करता चला गया। मित्रों की संख्या घटती गई। निरंतर उदास रहनेवाला मित्र भला किसे भाता! जो सच्चे मित्र थे वे सदैव साथ रहते थे। मैंने भी समय के साथ समझौता कर लिया। दुख की चादर सदा के लिए ओढ़ ली। वह दुख की चादर जो रुक्मिणी के विरह से मिली थी। मैं ऐसा करके सदैव यही प्रतीत करता कि वह मेरे आस पास ही है। उसका स्नेहसिक्त व्यक्तित्व ही ऐसा था।
ममता, स्नेह वात्सल्य का वह एक अनोखा मिसाल थी। जय को अपनी गोद में लिटाकर जब वह लोरी सुनाती तो वह ऐसे पलकें बंद कर लेता मानों परियों की दुनिया में सैर कर रहा हो। अभागा बेचारा! वात्सल्य की छाया समय से पहले ही छूट गई। मैं जय को कभी भी लोरी न सुना सका। सुनाता भी कैसे भला, मेरे कंठ ही वेदना से अवरुद्ध हो जाते और अश्रु की धार बहने लगती। जय के कपोल टपकती बूँदों से तर हो जाते। नन्हे सुकोमल हाथ उन्हें पोंछने लगते।
मैंने सब सह लिया, विरह की वेदना में झुलसता रहा और जय को रुक्मिणी की स्मृतियों के सहारे पाल ही लिया। जय बड़ा हुआ विवाह के बाद उसने घर बसाया पर मेरे भीतर धधकती वेदना के स्पंदन से वह कभी अनभिज्ञ न रहा।
फिर यह क्या हुआ? मेरे दुर्भाग्य के तार उसके भाग्य से क्यों जुड़ गए? मेरे व्यथित हृदय के झंकृत वेदना उसकी भी वेदना क्यों बन गई?
मैं वार्द्धक्य की सीमा पर हूँ वह जवानी में ही अकेला क्यों हो गया! मेरे सामने जय था, एक सशक्त ज़िम्मेदारी थी, पर जय? क्या वह
राधा का इस तरह अचानक जाना सहन कर पाएगा? क्या वह राधा से विरह सह पाएगा ? डरता हूँ वह उत्तेजित होकर कहीं कुछ कर न ले….
दरवाज़े से छनकर आती रोशनी बंद हो गई। जय ने कमरे की बत्ती बुझा दी। द्वार खुला और एक छाया मेरे सामने खड़ी हो गई। मेरी शांत पड़ी देह पर चादर ओढ़ा गई। मेरे माथे को चूमकर वह लौट गया।
अपने कमरे के दरवाज़े तक पहुँचकर उसने कहा, ” सो जाइए बाबूजी, अभी ज़िंदगी भर कई रातें जागनी होंगी हमें। फ़िक्र न करें मैं भी विरह सह लूँगा। उसकी छाया में ही तो पला हूँ न! मैं आत्महत्या नहीं करूँगा। “
मैं स्तंभित हो गया। पिता की व्यथा से परिपूर्ण विचार क्या पुत्र को डी.एन.ए में मिलते हैं?
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