स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – पूँछत हैं नाँव…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 229 – पूँछत हैं नाँव…
(बढ़त जात उजयारो – (बुन्देली काव्य संकलन) से)
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बोलत में सरम लगे पूँछत हैं नाँद
पूँछत हैं गाँव, पूँछत हैं नाँव
बोलत में सरम लगे पूँछ दे नाँव गाँव।
बेर बेर टेरत हैं देर देर हेरत हैं
जानें का बुदबुदात माला सी फेरत हैं।
चौपर सी खेलें अर सोचत हैं दाँव। पूँछत हैं नाँव ।
प्रान प्रीत जागी है फेंकी आँग आगी है
नदिया-सी उफन रई रीत नीत त्यागी है।
गोरस की गगरी खों मिलो एक ठाँव। पूछत हैं गाँव।
पूँछ पूँछ हारे हैं लगें को तुमारे हैं ?
राधा सी गोरी के कही कौन कारे हैं ?
औचक मैं खड़ी रही पकर लये पाँव। पूँछें वे नाँव गाँव।
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© डॉ. राजकुमार “सुमित्र”
साभार : डॉ भावना शुक्ल
112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
सादर नमन