श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 286 ☆ संवेदनशून्यता… ?

22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में आतंकियों ने 28 निहत्थे लोगों की नृशंस हत्या कर दी। इस अमानुषी कृत्य के विरुद्ध देश भर में रोष की लहर है। भारत सरकार ने कूटनीतिक स्तर पर पाकिस्तान को घेरना शुरू कर दिया है। तय है कि शत्रु को सामरिक दंड भी भुगतना पड़ेगा।

आज का हमारा चिंतन इस हमले के संदर्भ में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर हमारी सामुदायिक चेतना को लेकर है।

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अपनी अभिव्यक्ति / उपलब्धियों / रचनाओं को साझा करने का सशक्त एवं प्रभावी माध्यम हैं। सामान्य स्थितियों में सृजन को पाठकों तक पहुँचाने, स्वयं को वैचारिक रूप से अभिव्यक्त करने, अपने बारे में जानकारी देने की मूलभूत व प्राकृतिक मानवीय इच्छा को देखते हुए यह स्वाभाविक भी है।

यहाँ प्रश्न हमले के बाद से अगले दो-तीन दिन की अवधि में प्रेषित की गईं पोस्ट़ों को लेकर है। स्थूल रूप से तीन तरह की प्रतिक्रियाएँ विभिन्न प्लेटफॉर्मों पर देखने को मिलीं। पहले वर्ग में वे लोग थे, जो इन हमलों से बेहद उद्वेलित थे और तुरंत कार्यवाही की मांग कर रहे थे। दूसरा वर्ग हमले के विभिन्न आयामों के पक्ष या विरोध में चर्चा करने वालों का था। इन दोनों वर्गों की वैचारिकता से सहमति या असहमति हो सकती है पर उनकी चर्चा / बहस/ विचार के केंद्र में हमारी राष्ट्रीय अस्मिता एवं सुरक्षा पर हुआ यह आघात था।

एक तीसरा वर्ग भी इस अवधि में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सक्रिय था। बड़ी संख्या में उनकी ऐसी पोस्ट देखने को मिलीं जिन्हें इस जघन्य कांड से कोई लेना-देना नहीं था। इनमें विभिन्न विधाओं की रचनाएँ थीं।  इनके विषय- सौंदर्य, प्रेम, मिलन, बिछोह से लेकर सामाजिक, सांस्कृतिक आदि थे। हास्य-व्यंग के लेख भी डाले जाते रहे। यह वर्ग वीडियो और रील्स  का महासागर भी उँड़ेलता रहा। घूमने- फिरने से लेकर हनीमून तक की तस्वीरें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर शेयर की जाती रहीं।

यह वर्ग ही आज हमारे चिंतन के केंद्र में है। ऐसा नहीं है कि किसी दुखद घटना के बाद हर्ष के प्रसंग रुक जाते हैं। तब भी स्मरण रखा जाना चाहिए कि मोहल्ले में एक मृत्यु हो जाने पर मंदिर का घंटा भी बांध दिया जाता है। किसी शुभ प्रसंग वाले दिन ही निकटतम परिजन का देहांत हो जाने पर भी यद्यपि मुहूर्त टाला नहीं जाता, पर शोक की एक अनुभूति पूरे परिदृश्य को घेर अवश्य लेती है। पड़ोस के घर में मृत्यु हो जाने पर बारात में बैंड-बाजा नहीं बजाया जाता था। कभी मृत्यु पर मोहल्ले भर में चूल्हा नहीं जलता था। आज मृत्यु भी संबंधित फ्लैट तक की सीमित रह गई है। राष्ट्रीय शोक को सम्बंधित परिवारों तक सीमित मान लेने की वृत्ति गंभीर प्रश्न खड़े करती है।

इस वृत्ति को  किसी कौवे की मृत्यु पर काग-समूह के रुदन की सामूहिक काँव-काँव सुननी चाहिए। सड़क पार करते समय किसी कुत्ते को किसी वाहन द्वारा चोटिल कर दिए जाने पर आसपास के कुत्तों का वाहन चालकों के विरुद्ध व्यक्त होता भीषण आक्रोश सुनना चाहिए।

हमें पढ़ाया गया था, “मैन इज़ अ सोशल एनिमल।” आदमी के व्यवहार से गायब होता यह ‘सोशल’ उसे एनिमल तक सीमित कर रहा है। संभव है कि उसने सोशल मीडिया को ही सोशल होने की पराकाष्ठा मान लिया हो।

आदिग्रंथ ऋग्वेद का उद्घोष है-

॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥

( 10.181.2)

अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें।

कठोपनिषद, सामुदायिकता को प्रतिपादित करता हुआ कहता है-

॥ ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥19॥

ऐसा नहीं लगता कि सोशल मीडिया पर हर्षोल्लास के पल साझा करनेवाले पहलगाम कांड पर दुखी या आक्रोशित नहीं हुए होंगे पर वे शोक की जनमान्य अवधि तक भी रुक नहीं सके। इस तरह की आत्ममुग्धता और उतावलापन संवेदना के निष्प्राण होने की ओर  संकेत कर रहे हैं।

कभी लेखनी से उतरा था-

हार्ट अटैक,

ब्रेन डेड,

मृत्यु के नये नाम गढ़ रहे हम,

सोचता हूँ,

संवेदनशून्यता को

मृत्यु कब घोषित करेंगे हम?

हम सबमें सभी प्रकार की प्रवृत्तियाँ अंतर्निहित हैं। वांछनीय है कि हम तटस्थ होकर अपना आकलन करें, विचार करें, तदनुसार क्रियान्वयन करें ताकि दम तोड़ती संवेदना में प्राण फूँके जा सकें।

© संजय भारद्वाज 

प्रात: 6:57 बजे, शनिवार 26 अप्रैल 2025

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

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🕉️ प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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