डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘लॉकडाउन में मल्लूभाई की गृहसेवा’।  मल्लूभाई जैसे बहुत सारे चरित्र आपके आस पड़ोस में मिल जायेंगे, किन्तु ऐसे  सजीव चरित्र को हूबहू किसी रचना में उतारने क्षमता तो डॉ परिहार जी की  लेखनी में ही है। ऐसे  अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 48 ☆

☆ व्यंग्य – लॉकडाउन में मल्लूभाई की गृहसेवा ☆

लॉकडाउन लगने पर मल्लूभाई दफ्तर से घर में ऐसे गिरे हैं जैसे पानी में से खींची गयी कोई मछली ज़मीन पर गिरती है। जिस दफ्तर में दिन के दस घंटे गुज़रते थे और जो घर से भी बड़ा घर बन गया था, उसके दर्शन को आँखें तरस गयीं। रोज़ शाम साढ़े पाँच बजे घर आते थे, फिर चाय वाय पीकर सात बजे दफ्तर के क्लब के लिए भागते थे। वहाँ दो घंटे दोस्तों के साथ मस्ती होती थी। कैरम, शतरंज के साथ चाय-पकौड़े के दौर चलते थे। इतवार को भी दो तीन घंटे के लिए दोस्त वहाँ इकट्ठे हो जाते थे। दफ्तर में रोज़ हज़ार-पाँच सौ ऊपर के मिल जाते थे, जिसकी बदौलत बीवी-बच्चों पर रुतबा बना रहता था। अब वह रुतबा छीज रहा था।

अब मल्लूभाई बनयाइन-लुंगी पहने घर में मंडराते रहते हैं। हर खिड़की पर रुककर झाँकते हैं, फिर लंबी साँस खींचते हैं। इसके बाद आगे बढ़ जाते हैं। बाहर सड़कों पर सन्नाटा और वीरानी है। इधर उधर डंडाधारी पुलिसवालों के सिवा कोई नहीं दिखता।

मल्लूभाई पत्नी से कहते हैं, ‘देखो, हर खराबी में कुछ अच्छाई होती है। अब हम फुरसत हैं तो घर के काम में आपकी मदद करेंगे। अभी आपका काम बढ़ गया है, हम मदद करेंगे तो आपको कुछ राहत मिलेगी। ‘

पत्नी उन्हें जानती है। जवाब देती है, ‘देखते हैं कितनी मदद करते हो।’

मल्लूभाई पहले साढ़े सात बजे उठ जाते थे, अब दस बजे तक नाक बजाते, मनहूसियत फैलाते, सोते रहते हैं। उनके आसपास  पत्नी काम करती रहती है, लेकिन उन्हें  कोई फर्क नहीं पड़ता।

उठ कर नहा धो कर दो घंटे पूजा में बैठते हैं। पत्नी कहती है, ‘पहले तो आधे घंटे में पूजा हो जाती थी, अब दो घंटे तक क्या करते हो?’

मल्लूभाई जवाब देते हैं, ‘पहले सिर्फ अपने परिवार के लिए प्रार्थना करता था, अब इस मुसीबत में पूरी दुनिया के लिए प्रार्थना करता हूँ। एक एक देश का नाम लेता हूँ। फिर अपने देश पर आकर एक एक राज्य का नाम लेता हूँ। इसके बाद अपने राज्य के एक एक ज़िले का नाम लेता हूँ। फिर अपने शहर में आकर एक एक मुहल्ले का नाम लेता हूँ, और फिर अपनी कॉलोनी के एक एक घर का नाम लेता हूँ। फिर अपने परिवार और आपके मायकेवालों के नाम लेता हूँ। मैंने सब की लिस्टें बना ली हैं। अब इतनी लम्बी पूजा में दो घंटे से कम क्या लगेंगे?’

पत्नी चुप हो जाती है। भोजन करते करते मल्लूभाई पत्नी से कहते हैं, ‘आप से कहा था कि कुछ काम मेरे लिए छोड़ दिया करो। आप छोड़ोगी नहीं तो हम क्या करेंगे?’

पत्नी व्यंग्य से कहती हैं, ‘आपसे क्या कहें?आपके पास काम के लिए टाइम ही कहाँ होता है।’

मल्लूभाई शर्मीली हँसी हँस कर मौन साध लेते हैं।

शाम को पत्नी मल्लूभाई से कहती है, ‘ज़रा बाहर निकलकर देखो, कोई सब्ज़ीवाला दिखे तो सब्ज़ी ले आओ। आज कोई ठेलेवाला नहीं आया।’

मल्लूभाई आज्ञाकारी भाव से कपड़े बदलते हैं और थैला उठाकर बाहर निकल जाते हैं।

डेढ़ घंटा गुज़र जाता है, लेकिन सब्ज़ी लेने गये मल्लूभाई लौट कर नहीं आते। पत्नी घबरा जाती है। मन में कई दुश्चिंताएं उठती हैं। कहीं पुलिस ने तो नहीं बैठा लिया।

परेशान होकर फोन लगाती है। उधर से जवाब मिलता है, ‘अरे, सड़क पर कोई पुलिसवाला नहीं दिखा, सो टहलते हुए खरे साहब के यहाँ आ गया। कई दिनों से मिल नहीं पाया था। बस आई रहा हूँ।’

नौ बजे मल्लूभाई खाली थैला हिलाते हुए आ जाते हैं। सफाई देते हैं, ‘सब सब्ज़ी वाले इतनी जल्दी गायब हो गये। तुम चिन्ता न करो। सबेरे ठेले वाले आएंगे, नहीं तो मैं कल पक्का ला दूँगा। कल सबेरे जल्दी उठ जाऊँगा तो सब्ज़ी भी देख लूँगा और घर के कुछ काम भी निपटा दूँगा।’

सबेरे नौ बजे तक ठेले नहीं आये तो पत्नी ने मल्लूभाई को हिलाया,कहा, ‘अभी तक कोई ठेला नहीं आया। ज़रा उठकर बाहर देख लो।’

मल्लूभाई नींद में हाथ उठाकर बुदबुदाते हैं, ‘चिन्ता मत करो। मैं अब्भी उठ कर सब देख लूँगा। सब हो जाएगा। बस अब्भी उठता हूँ।’

इतना बोलकर वे करवट लेकर फिर अपनी सुख-निद्रा में डूब जाते हैं।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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