श्रीमति विशाखा मुलमुले
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना ‘जरूरत और आदत ‘। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकते हैं । )
☆ जरूरत और आदत ☆
हम हरे नही
फिर भी प्रकाशपुंज हमारी जरूरत
एक दूजे की आँखों की चमक
थी हमारी आदत …
हम प्यासे तो पानी हमारी जरूरत
पर प्यार में प्यासा बने रहना
थी हमारी आदत ….
हम चाहे उलझे , बिखरें , टूटे
हवाओं की सरसरी हमारी जरूरत
संग प्राणों का आयाम साधना
थी हमारी आदत …
जलता रहा लोभ , ईर्ष्या , जलन
का अग्निकुंड चहुँओर
जिसकी तपिश की नहीं हमें जरूरत
हम में अहम को भस्म करना
थी हमारी आदत …
जरूरतें व्योम सी
थक जाती हैं आँखें तक – तक
समेटे अपने पंखों को
घोसलें में बसर करना
थी हमारी आदत ….
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र
मैँ अपने पर हैरान हूं कि इस स्तम्भ पर अब तक मेरी नजर क्यों नहीं पड़ी ? असल हैरानी शायद यह है कि विशाखा की कविताओं से मेरी मुलाकात इतनी देर से क्यों हुई।