डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सकारात्मक आलेख ‘इंसानियत का दुर्लभ उदाहरण : आज सक्षम लोगों द्वारा जरूरतमंदों की सहायता करना’।)
☆ किसलय की कलम से # 2 ☆
☆ इंसानियत का दुर्लभ उदाहरण : आज सक्षम लोगों द्वारा जरूरतमंदों की सहायता करना ☆
गरीब, जरूरतमंद, भिखारी अथवा कृपाकांक्षी होना अक्सर किसी का स्वभाव या प्रवृत्ति नहीं होती, अपितु यह किसी सामान्य इंसान का अंतिम रास्ता या परिस्थिति होती है। समाज भी इसे सम्मानजनक नहीं मानता। विश्व में कर्म को प्रधानता प्राप्त है, तब अकर्मण्यता आखिर क्यों सम्मानित होगी? भले ही वह विषम परिस्थितियों अथवा विवशता में अपनाई जाए, घर की दो सूखी रोटियाँ भली इसीलिए कहीं गई हैं। एक साधारण बात है जो चीज मेहनत, बल, बुद्धि और समय खपाकर प्राप्त की जाती है, उसे यूँ ही खैरात में बाँटने का साहस एक सामान्य मानव नहीं कर पाता या जब वह किसी अकर्मण्य को किसी दूसरे के पसीने की कमाई लुटाते या उपभोग करते देखता है तो उसके हृदय में न चाहते हुए भी कसक होती ही है।
दरवाजे पर आए भिखारियों और राह चलते माँगने वालों को हम सभी ने दुत्कारते और मना करते देखा है। आखिर इस मानसिकता के पृष्ठभाग में क्या छुपा है? इसमें सच्चाई यही है कि अधिकतर ये भिखारी या जरूरत का आडंबर ओढ़े लोग अपनी दिन भर की कमाई को उदरपोषण और बचत करने के बजाय दारुखोरी, जुए और अन्य व्यसनों में ज्यादा उड़ा देते हैं। इनमें ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जिन्हें वास्तव में दान या सहयोग का सुपात्र कहा जाये। एक और सच्चाई है कि यह जानते हुए कि याचक हमारी दया का पात्र है फिर भी हम अपनी मेहनत की कमाई देने का मन नहीं बना पाते। दान, परोपकार व सहयोग की भावना तब बलवती होती है, जब सामने वाली की मुसीबतें, लाचारी, असलियत और अवस्था प्रदाता की अंतरात्मा को द्रवित करती है। इस भावना के वशीभूत होकर जब इंसान परपीड़ा, परोपकार, दान या सहयोग करता है तब ही वह परमानंद पाता है जो आत्मसंतुष्टि तो देता ही है, अतुलनीय भी होता है। मानव को प्राप्त हुए इस परमानंद के लिए याचक और दानदाता दोनों के मन साफ होना आवश्यक है। याचक की लालची प्रवृत्ति के पता चलने पर दाता जहाँ ठगे जाने का अनुभव करता है, वहीं सुपात्र याचक भी कभी-कभी दाता द्वारा अनिच्छा पूर्वक दिए दान से दुखी भी होते हैं। आदिकाल के हरिश्चंद्र, मोरध्वज या दानवीर कर्ण की दानवीरता से कौन परिचित नहीं है। परमार्थ हमारे संस्कारों तथा भारतीयता के मूल में है। सभी चाहते हैं कि उनकी संतान संस्कारवान बने और सुकृति हो, पर आज के बदलते परिवेश और एकल पारिवारिक जीवनशैली ने हमारी परंपराओं, रिश्तों और सद्भावना की दुर्गति बना दी है। कहते हैं कि आग राख के अंदर विद्यमान रहती है। हमारे संस्कार बाह्याडंबर और चकाचौंध में भले ही सिमट जाएँ लेकिन अनुकूल वातावरण में वे पुनर्जीवित हो जाते हैं।
हम आज का ही उदाहरण लें, कोविड-19 महामारी से सारा विश्व ग्रसित और भयाक्रांत है, हर आदमी घर में ही दुबके रहना चाहता है, लेकिन हमारा मन घर तक सीमित भला कैसे रहेगा? मन तो घर-परिवार से आगे देश-दुनिया के बारे में भी सोचता रहता है। हम ठीक हैं, क्या और सभी ठीक हैं? पड़ोसी कैसा है? रिश्तेदार कैसे हैं? आसपास की आँखों देखी, रेडियो, टेलीविजन, प्रिंट मीडिया, अंतरजाल आदि पर पढ़ी-लिखी-सुनी बातों पर ये मन चिंतन तो करेगा ही।
इन दिनों प्रायः सभी ने यह देखा है कि एक बहुत बड़ा ऐसा तबका है जो दिहाड़ी पर निर्भर है या किसी कारणवश उसके पास खाद्यान्न का अभाव है। अनेक माध्यमों से बहुतायत में हम तक ये खबरें पहुँच रही हैं कि मुसीबत के इन क्षणों में इस तबके के लोगों को भूखे सोने तक की नौबत आ गई है। आज पत्थर दिल इंसान का भी दिल पिघल रहा है। उद्योगपति, धनाढ्य, उच्चवर्ग, मध्यमवर्ग, यहाँ तक कि उदारमना निम्नवर्ग भी इन दिनों “किसी को भूखा नहीं सोने देंगे” वाक्य को चरितार्थ करने में यथायोग्य सहायक बन रहा है। सरकार के सकारात्मक कार्यों की सराहना आज हर कोई कर रहा है लेकिन उससे कहीं अधिक जनसामान्य और निजी तौर पर किए जा रहे प्रयास भी प्रणम्य हैं। एक बड़े अंतराल के बाद ये परोपकारिता के दुर्लभ दृश्य दिखाई पड़ रहे हैं। आज मोहल्ला, गाँवों, कस्बों और शहरों के कोने-कोने में व्यक्तिगत रूप से, समूहों व संस्थाओं के माध्यम से जरूरतमंदों को दिल खोलकर भोजन व खाद्य सामग्री पहुँचाई जा रही है। व्यक्तिगत, समूहों व संस्थाओं के सदस्य अपनी जान जोखिम में डालकर चौबीसों घंटे मदद हेतु तत्पर हैं। उनका सेवाभाव देखते ही बनता है। इसी तरह सहयोगकर्ताओं की अंतहीन सहायता युगों बाद दिखाई दे रही है। इन सहयोगियों, दानदाताओं और इस पुण्य कार्य में कर्त्तव्यस्थ व्यक्तियों के लिए कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु शब्द कम पड़ रहे हैं। मेरा मानना है कि इन लोगों को देखकर जहाँ अन्य लोग भी प्रेरित हो रहे हैं, वहीं अनजाने में ही सही ये परहित के संस्कार हम अपनी संतानों में डाल रहे हैं। शायद अगली पीढ़ी और आने वाला समय ज्यादा सहृदय और सदाचारी हो।
आज हमें जरूरतमंदों के प्रति जो सेवाभाव देखने मिल रहा है। आवारा जानवरों, बंदरों, कुत्ते-बिल्लियों को तक लोग भोजन दे रहे हैं, ऐसा पूर्व में कभी नहीं दिखा। कोविड-19 महामारी का सबसे बड़ा खतरा है ही, बावजूद इसके आज सक्षम और परोपकारियों द्वारा जरूरतमंदों की सहायता करना इंसानियत का दुर्लभ उदाहरण भी बन रहा है। लगभग 500 वर्ष पूर्व तुलसीदास जी द्वारा लिखा सूत्र-
परहित सरिस धरम नहिं भाई
परपीड़ा सम नहिं अधमाई
आज वास्तव में हमारे समाज के लोगों ने इसे चरितार्थ किया है। ऐसे वृहद स्तर व लंबी अवधि तक जरूरतमंदों को भोजन व खाद्यान्न आपूर्ति का ऐसा दृश्य मानवता की मिसाल ही कहा जाएगा। वक्त निकल जाएगा, महामारी चली जाएगी, पर काफी लंबे समय तक ये क्षण, ये बातें, ये परोपकार की कहानियाँ बार-बार दोहराई जाती रहेंगी।
© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
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आदरणीय, बावनकर जी
आप इस साहित्य सेवा से इतिहास रसच रहे हैं।
लोग अभिव्यक्ति में प्रकाशित रचनाओं का संग्रह करेंगे।