श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण रचना  ‘धम्मम शरणम गच्छामि । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 36 – विशाखा की नज़र से

☆  धम्मम शरणम गच्छामि  ☆

 

अगर यह कलयुग है तो

उसकी देहरी पर बैठी है मानवता

और यह है साँझ का वक्त

देहलीज के उस पार

धीरे – धीरे बढ़ रहा है अंधकार

हो न हो कलयुग का यही है मध्यकाल

अर्थ जिसका कि ,

अभी और गहराता जाएगा अंधकार

 

देहरी के इस ओर है धम्म का घर

जहां किशोरवय संततियां

एक – एक कक्ष में फैला रहीं है प्रकाश

अभी शेष है समय

चलो ! कलयुग को पीठ दिखा

हम लौट चले धर्म से धम्म की ओर

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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Shyam Khaparde

बहुत ही सुन्दर अर्थपूर्ण रचना, बधाई