डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘भाग्य से मिला मानुस तन ’। यह सच है कि मानव जीवन भाग्य से मिलता है। किन्तु, जीवन मिलने  के आगे भी तो बहुत कुछ है……..। ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 52 ☆

☆ व्यंग्य – भाग्य से मिला मानुस तन ☆

गोसाईं जी बहुत सही लिख गये हैं——‘बड़े भाग मानुस तन पावा,सुर दुरलभ सब ग्रंथनि गावा।’ यानी यह मनुष्य का चोला बड़े भाग्य से मिलता है और यह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।

मनुष्य-जन्म मिला तो रीढ़ सीधी हुई, आँखों के सामने संसार बड़ा हो गया और हाथों को चलने के काम से मुक्ति मिली। आदमी के स्वतंत्र हाथों ने दुनिया को बदल कर रख दिया।रीढ़ की अहमियत के बारे में आचार्य विश्वनाथ तिवारी की एक कविता है—–

         ‘रीढ़ न हो सीधी तो कैसे बनेगा आदमी,

          रीढ़ झुकी है तो हाथ बँथे हैं,

          हाथ बँथे हैं तो बँधी हैं आँखें,

          आँखें बँधी हैं तो बँधा है मस्तिष्क,

           मस्तिष्क बँधा है तो बँधी है आत्मा।’

यानी हाथ मुक्त हुए तो मस्तिष्क और आत्मा भी मुक्त हो गये। निःसंदेह यह मनुष्य-जन्म की बड़ी उपलब्धि है।

लेकिन शंका यह उठती है कि क्या मात्र मनुष्य-जन्म पाने से संसार-सागर में अपनी नैया पार हो जायेगी? विचार करने पर बहुत से प्रश्न और सन्देह कुलबुलाने लगते हैं।

ज़ाहिर है कि सिर्फ मनुष्य का जन्म लेने से काम नहीं चलेगा। जन्म लेते ही देखना होगा कि आप किस जाति में अवतरित हुए हैं।यदि ऊँची जाति में जन्म नहीं हुआ तो मनुष्य-जन्म अकारथ हो जायेगा। ऊँची जाति में अवतरित होते ही ज़िन्दगी की आधी मुश्किलें हल हो जाती हैं।यदि दुर्भाग्य से नीची जाति में जन्म हो गया तो पुराने दागों को छुड़ाते ही उम्र बीत जायेगी।न मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़ने को मिलेंगी, न गाँव के सार्वजनिक कुएँ से पानी नसीब होगा।न घोड़ी पर बारात निकलेगी, न चढ़ी- पनहियाँ गाँव के दबंगों के घर के सामने से निकलना हो पायेगा।कभी कभी ताज्जुब होता है कि क्या ‘इनको’ और ‘उनको’ बनाने वाला भगवान एक ही है? एक ही होता तो हज़ारों साल तक इतना ज़ुल्म कैसे होने देता?सारे कानूनों और सरकारी वीर-घोषणाओं के बावजूद निचली जातियों का एक बड़ा तबका अभी भी अपने पुराने, गंदे धंधों में लिथड़ने के लिए अभिशप्त है जहाँ आगे अँधेरे के सिवा कुछ नहीं है।

दूसरे, मनुष्य-जन्म तभी सार्थक हो सकता है जब घर में इतना पैसा-कौड़ी हो कि पढ़-लिख कर मुकम्मल आदमी बना जा सके। अब शिक्षा इतनी मँहगी हो गयी है कि खर्च उठाने की कूवत न हुई तो मनुष्य-जन्म प्राप्त करने के बाद भी ‘साक्षात पशु, पुच्छ विषाण हीना’ बने रहने की नौबत आ सकती है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद कुछ बचे तो कुछ पैसा ‘रिश्वत फंड’ के लिए रखना ज़रूरी होगा अन्यथा काबिलियत के बाद भी नौकरी और रोज़गार पाने में अनेक ‘दैवी’ अड़चनें पैदा हो सकती हैं।

दर असल मनुष्य-जन्म को सार्थक बनाने के लिए कुछ ‘पावर’ होना ज़रूरी है, अन्यथा मनुष्य-जन्म बिरथा हो जाएगा। ‘पावर’  पालिटिक्स का हो सकता है या पैसे का या पद का। ये तीनों अन्योन्याश्रित हैं। पैसा पालिटिक्स में  घुसने की राह हमवार करता है। पैसे से पद और पद से पैसा प्राप्त होने का सुयोग बनता है। पालिटिक्स में सफलता मिल जाए तो पैसा और पद सब सुलभ हो जाता है। आजकल एक और पावर धर्म का है जो मनुष्य-जीवन को बड़ी ऊँचाइयाँ प्रदान करता है। धर्म का पावर सब पावर से बढ़ कर है। यह पावर मिल जाए तो लक्ष्मी अपने आप खिंची चली आती है। साथ ही राजनीतिज्ञ,थनकुबेर और बड़े पदाधिकारी सभी धर्म की शक्ति वालों के आगे नतमस्तक होते हैं। धर्म का चमत्कार देखना हो तो धार्मिक पावर वालों के जीवन पर दृष्टि डालें।

किस्सा-कोताह यह कि मनुष्य-जन्म की सार्थकता तभी है जब ऊपर दी हुई शर्तें भी पूरी हों, अन्यथा कोरा मनुष्य-जन्म साँसत में गुज़र सकता है।

फिलहाल खबर यह है कि हमारे देश में कई लोग अपने शरीर में रीढ़ की उपस्थिति से परेशान हैं। उनका कहना है कि पालिटिक्स और नौकरी में सफलता के लिए रीढ़ को बार बार झुकाना पड़ता है और मनुष्य के रूप में उन्हें जैसी रीढ़ मिली है उसमें पर्याप्त लचक नहीं है।इसलिए वे डाक्टरों से मिलकर संभावना तलाश कर रहे हैं कि उनकी रीढ़ अलग करके उन्हें केंचुए जैसा बना दिया जाए ताकि उनका जीवन सरल और सफल हो सके।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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Shyam Khaparde

भाई गज़ब का व्यंग, बधाई