(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर एवं समसामयिक व्यंग्य “वेलकम बैक डियर मेड”। श्री विवेक जी ने आज के समय का सजीव चित्रण कर दिया है। हमें वास्तव में यह स्वीकार करना चाहिए कि हमें कोरोना के साथ ही अपने और परिवार के ही नहीं अपितु सारे समाज और मानवता के हित में स्वसुरक्षा का ध्यान रखना ही पड़ेगा। श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 53 ☆
☆ व्यंग्य – वेलकम बैक डियर मेड ☆
मेड के बिना लाकडाउन में घर के सारे सदस्य और खासकर मैडम मैड हो रही हैं. मेड को स्वयं कोरोना से बचने के पाठ सिखा पढ़ाकर खुशी खुशी सवैतनिक अवकाश पर भेजने वाली मैडम ही नहीं श्रीमान जी भी लाकडाउन खुलते ही इस तरह वेलकम बैक डियर मेड करते दिख रहे हैं, मानो कोरोना की वैक्सीन मिल गई हो. मेड की महिमा, उसका महात्म्य कोरोना ने हर घर को समझा दिया है. जब खुद झाड़ू पोंछा, बर्तन, खाना नाश्ता, कपड़े, काल बेल बजते ही बाहर जाकर देखना कि दरवाजे पर कौन है, यह सब करना पड़ा तब समझ आया कि इन सारे कथित नान प्राडक्टिव कामों का तो दिन भर कभी अंत ही नही होता. ये काम तो हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ते ही जाते हैं. जो बुद्धिजीवी विचारवान लोग हैं, उन्हें लगा कि वाकई मेड का वेतन बढ़ा दिया जाना चाहिये. कारपोरेट सोच वाले मैनेजर दम्पति को समझ आ गया कि असंगठित क्षेत्र की सबसे अधिक महत्वपूर्ण इकाई होती है मेड. बिना झोपड़ियों के बहुमंजिला अट्टालिकायें कितनी बेबस और लाचार हो जाती हैं, यह बात कोरोना टाईम ने एक्सप्लेन कर दिखाई है. भारतीय परिवेश में हाउस मेड एक अनिवार्यता है. हमारा सामाजिक ताना बाना इस तरह बुना हुआ है कि हाउस मेड यानी काम वाली हमारे घर की सदस्य सी बन जाती है. जिसे अच्छे स्वभाव की, साफसुथरा काम करने वाली, विश्वसनीय मेड मिल जावे उसके बड़े भाग्य होते हैं. हमारे देश की ईकानामी इस परस्पर भरोसे में गुंथी हुई अंतहीन माला सी है. किस परिवार में कितने सालों से मेड टिकी हुई है, यह बात उस परिवार के सदस्यो के व्यवहार का अलिखित मापदण्ड और विशेष रूप से गृहणी की सदाशयता की द्योतक होती है.
विदेशों में तो ज्यादातर परिवार अपना काम खुद करते ही हैं, वे पहले से ही आत्मनिर्भर हैं. पर कोरोना ने हम सब को स्वाबलंब की नई शिक्षा बिल्कुल मुफ्त दे डाली है. विदेशो में मेड लक्जरी होती है. जब बच्चे बहुत छोटे हों तब मजबूरी में हाउस मेड रखी जाती हैं. मेड की बड़ी डिग्निटी होती है. उसे वीकली आफ भी मिलता है. वह घर के सदस्य की तरह बराबरी से रहती है. कुछ पाकिस्तानी, भारतीय युवाओ ने जो पति पत्नी दोनो विदेशो में कार्यरत हैं, एक राह निकाल ली है, वे मेड रखने की बनिस्पत बारी बारी से अपने माता पिता को अपने पास बुला लेते हैं. बच्चे के दादा दादी, नाना नानी को पोते पोती के सानिध्य का सुख मिल जाता है, विदेश यात्रा और कुछ घूमना फिरना भी बोनस में हो जाता है, बच्चो का मेड पर होने वाला खर्च बच जाता है.
कोरोना के आते ही सब यकायक डर गये. बचपन में हौवा से बहुत डराया जाता था, सचमुच कोरोना हौवा के रूप में आ गया. लगा कि थाली बजाने से, दिये जलाने से, मेड को सवैतनिक अवकाश दे देने से हम कोरोना संकट से निपट लेंगें. पर लाकडाउन एक, दो, तीन, चार बढ़ते ही गये कोरोना है कि जाने का नाम ही नही ले रहा. श्रीमती जी की छिपी अल्प बचत के जमा रुपये खतम होने लगे. सरकार का असर बेकार होने लगा, डाक्टर्स थकने लगे, पोलिस वाले लाचार होने लगे, तब कोरोना के साथ जीने का फार्मूला ढ़ूंढ़ा गया. अनलाक शुरू हुआ. कुछ को लग रहा है जैसे कर्फ्यू खतम, उन्हें समझना जरूरी है कि लाकडाउन से कोरोना से निपटने की जनजागृति भर आ पाई है , कोरोना गया नही है. अब हमारी सुरक्षा हमें स्वयं ही करनी है, पर फिलहाल तो हम इसी में खुश हैं कि मास्क के घूंघट और हैंडवाश की मेंहदी के संग हमारी कामवाली फिर से बुला ली गई है, हम सब समवेत स्वर में कह रहे हैं वेलकम बैक डियर मेड.
© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर
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