डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सकारात्मक आलेख  ‘कोरोना से संदर्भित : वह पीड़ा जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं’।)

☆ किसलय की कलम से # 3 ☆

☆ कोरोना से संदर्भित : वह पीड़ा जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं ☆

(यह आलेख लॉक डाउन के प्रथम चरण से संदर्भित है किन्तु, इसके तथ्य आज भी विचारणीय हैं जिन्हें आत्मसात करने की आवश्यकता है।) 

लगभग सौ वर्ष पूर्व का भारतीय सामाजिक परिवेश देखें तो हम पाएँगे कि समाज में वर्ण व्यवस्था जीवित तो थी लेकिन शिथिल भी होती जा रही थी। लोग वर्ण से इतर कामकाज और व्यवसाय-धंधे अपनाने लगे थे। धीरे-धीरे रूढ़िवादियाँ और असंगत प्रथाएँ समाप्त हो रहीं थी, वहीं पाश्चात्य की दस्तक से जीवनशैली बदलने लगी थी। जो समाज छुआछूत, ऊँच-नीच अथवा निम्न जातियों से परहेज करता था, उनके भी मायने बदलने लगे थे। लोगों में रहन-सहन, खान-पान और मेलजोल बढ़ने लगा था। यह कितना उचित था, कितना प्रासंगिक था? अथवा कितना आवश्यक था? ये सब वक्त और परिस्थितियों के साथ बदलता रहता है।

पहले स्नान-ध्यान, पूजा-भक्ति, नियम-संयम अथवा जाति-धर्म का बहुत महत्त्व होता था। जहाँ तक मैंने अध्ययन एवं चिंतन किया है, ये सब बातें कपोलकल्पित नहीं थीं। हर व्यवस्था अथवा कार्य के पृष्ठ में एक तर्क, सत्यता, व्यवस्था अथवा सुरक्षा का भाव निश्चित रूप से होता था। स्वस्थ जीवन के इस रहस्य को युगों-युगों से भारतीय जानते हैं। आज भी स्नान, स्वच्छता, शुद्धता, सद्भावना आदि का पहले जैसा ही महत्त्व है। आज बदलते परिवेश और प्रगति की अंधी दौड़ में हमारी दिनचर्या इतनी अनियमित व असुरक्षित हो गई है, जिस पर चिंतन किया जाए तो उसे कोई भी स्वीकार्य नहीं कर पायेगा।

घर में लाया गया खाद्यान्न हो अथवा कोई भी सीलबंद सामग्री, उसकी विश्वसनीयता हमेशा से संदेह के घेरे में रही है, आज के समय में क्या आप बाहर की किसी भी वस्तु या खाद्य पदार्थ घर में लाना चाहेंगे? शायद आज बिल्कुल नहीं, फिर भी हम विवश हैं। राम भरोसे सब कुछ ला रहे हैं और खा भी रहे हैं। वर्तमान में उत्पन्न हुईं ये परिस्थितियाँ हमारी महत्त्वाकांक्षाओं का ही कुपरिणाम है। आज आदमी आदमी के निकट आने से घबरा रहा है। हाथ मिलाने के स्थान पर दूर से नमस्ते करने लगा है। आज सुरक्षा की दृष्टि से दूसरे के हाथों बने भोजन से परहेज करने लगा है। कुछ ही महीने पहले ऐसा लगता था कि इन सबके बिना आदमी जिंदा नहीं रह पाएगा परन्तु अब ऐसा लगने लगा है जैसे नए रूप में ही सही कुछ पुरानी प्रथाएँ पुनर्जीवित हो उठीं हों।

आज ट्रेनें बंद हैं। बाजार बंद हैं। आवश्यक सेवाएँ तक न के बराबर हैं, फिर भी सभी जिंदा हैं। इसका मतलब यही हुआ कि आदमी चाह ले तो सब संभव है। इसी को वक्त का बदलना कहते हैं। आज हजारों किलोमीटर की दूरी तय कर आदमी अपने घरों को लौट रहे हैं। घर से बाहर निकला मजदूर अपने शहर और गाँव की ओर भाग रहा है। उसके मन में बस एक ही बात है कि जो भी हो, जैसे भी रहेंगे, अपने घर और अपनों के बीच में रहेंगे। इसीलिए कहा गया है कि-

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’

सुख हो अथवा दुख अपनी माटी, अपने लोक और अपनी संस्कृति में आसानी से कट जाते हैं। आज जब आदमी अपने घरों की ओर भाग रहा है, तब उन उद्योगों-धंधों और व्यवसाय का क्या होगा? जहाँ बहुतायत में बाहरी मजदूर व कर्मचारी काम करते थे। उन मजदूरों, छोटे व्यापारियों और कुटीर उद्योगों का क्या होगा, जिनसे लोगों की रोजी-रोटी चलती थी। कुछ ही समय में ऐसे अनेक परिवर्तनों का खामियाजा हमारा समाज भुगतेगा,  जिन पर अभी तक किसी ने सोचा भी नहीं है। बड़े उत्पादों हेतु जब कर्मचारियों की कमी होगी तो उत्पादन और गुणवत्ता पर असर पड़ेगा ही। क्या उत्पाद महँगे नहीं होंगे? जब मजदूरों को मजदूरी नहीं मिलेगी तो क्या उनकी दिनचर्या में फर्क नहीं पड़ेगा? उनकी रोजी रोटी कैसे चलेगी? जब रोजी रोटी नहीं चलेगी तो बेरोजगारी, भूखमरी और अराजकता नहीं फैलेगी?  क्या निम्नवर्गीय बेरोजगार तबका न चाहते हुए भी अनैतिक और उल्टे-सीधे कार्य नहीं करेगा?

यदि समय रहते देश के जागरूक, बड़े उद्योगपति, देश के कर्णधार और प्रशासन देशहित में आगे नहीं आये, समृद्ध लोगों ने उदारता नहीं दिखलाई तो बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, चोरी-डकैती, लूटमार की घटनाएँ बढ़ने में देर नहीं लगेगी। आज कोरोना-कहर ने सारे विश्व को स्तब्ध कर दिया है। कुछ ही महीनों में इस बीमारी के दुष्परिणाम दिखाई देने लगे हैं। अभी पूरा का पूरा निम्न वर्ग अपनी जमापूँजी के सहारे अपनी रोजी-रोटी जैसे-तैसे चला रहा है। जब पूँजी समाप्त हो जाएगी और रोजगार भी नहीं रहेगा, फिर क्या होगा? इसकी कल्पना ही भयावह लगती है।

कुछ लोगों की नासमझी, कुछ विवशताएँ एवं कुछ असावधानियाँ भी कोविड-19 को विकराल बनाने में सहायक हो रही हैं। आज वह चाहे छोटा हो या बड़ा, अनपढ़ हो या पढ़ा-लिखा, धनवान हो या निर्धन, जिस तरह बिजली और आग किसी में फर्क नहीं करती ठीक उसी तरह यह कोरोना किसी के साथ भेदभाव नहीं करता, जो सामने पड़ा उस पर वार करेगा ही। गंभीरता से सोचने पर कहा जा सकता है कि यह वह पीड़ा है जिसके हम स्वयं उत्तरदायी हैं।

अतः हमें स्वयं को, अपने परिवार को, अपने गाँव-शहर को या यूँ कहें कि अपने देश को इस संकट से उबारना है तो हमें प्रशासन व चिकित्सकों के सभी निर्देशों का स्वस्फूर्तभाव से पालन करना होगा। यदि हम सब कृतसंकल्पित होते हैं तो शीघ्र ही हमारी और हमारे देश की परिस्थितियाँ वापस सामान्य होने लगेंगी और एक बार पुनः निर्भय, स्वस्थ और सुखशांतिमय जीवन की शुरुआत हो सकेगी।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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Vijay Tiwari Kislay

ई-अभिव्यक्ति पत्रिका में मेरा आलेख प्रकाशित करने हेतु आभार भाई साहब।
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