डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सकारात्मक आलेख  ‘समय है प्रकृति से जुड़ी जीवनशैली अपनाने का।)

☆ किसलय की कलम से # 4 ☆

☆ समय है प्रकृति से जुड़ी जीवनशैली अपनाने का ☆

प्रकृति और पर्यावरण परस्पर पूरक हैं। प्रकृति का असंतुलन ही पर्यावरण क्षरण का अहम कारक है। देश में जहाँ कांक्रीट जंगल बढ़ते जा रहे हैं और वन्यक्षेत्र कम हो रहे हैं, बावजूद इसके भारत में अब भी विस्तृत और सुरक्षित हरित् क्षेत्रफल की कमी नहीं है। सत्यता यह भी है कि आवास, उद्योग व कृषि क्षेत्रों के विस्तार से वन्य क्षेत्रफल में कमी आई है परंतु प्राकृतिक असंतुलन का मूल कारण शहरी, कृषि और औद्योगिक भूखंडों में अनिवार्यतः वृक्षारोपण एवं वन्यक्षेत्रों का और विस्तार न किया जाना है। घरों, इमारतों, सड़कों, औद्योगिक क्षेत्रों व कृषिभूमि में यथोचित वृक्षारोपण की अनिवार्यता सुनिश्चित होना चाहिए। आज प्रमुखतः शहरी क्षेत्रों में इसकी उपेक्षा का दंश वहाँ का हर नागरिक झेल रहा है। गर्मी का प्रकोप, जलस्तर में कमी एवं वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी आज स्पष्ट देखी जा सकती है। हमारे आसपास व सड़कों के किनारे छायादार वृक्षों की कमी समस्त जीवधारियों के लिए घातक सिद्ध हो रही है। वनों तथा पेड़ों की कटाई से जलस्रोत कम हो रहे हैं। नदियों का पानी घट रहा है। अंधाधुंध विषैले धुएँ से वायुमंडल जहरीला होता जा रहा है। इसके ठीक विपरीत आज भी ग्राम्यांचलों की हरियाली और लहराते खेत सभी को आकर्षित करते हैं। शुद्ध वायु ग्रामीणों की तंदुरुस्ती का एक प्रमुख कारक है।

हम कुछ प्रतिशत सक्षम परिवारों को छोड़ दें तो आज शहरी क्षेत्रों में आवास की विकट समस्या खड़ी हो गई है। लोग घोंसलों जैसे  छोटे कमरों, फ्लैट्स और मकानों में रहने हेतु बाध्य हैं। नगरों-महानगरों की बहुमंजली इमारतों में निवासरत मनुष्यों का घनत्व मधुमक्खियों के छत्तों जैसा हो गया है। ऐसी परिस्थितियों में आदमी अपने स्वास्थ्य व पर्यावरण पर ध्यान न देकर तथाकथित समृद्धि की चाह में अपने ही स्वास्थ्य की बाजी लगा बैठा है। निरंतर प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध चलने की हठ ने भी मनुष्यों में जो बीमारियाँ व परेशानियाँ पैदा की हैं, इन मानवघाती गलतियों का क्रम पिछली सदी से ही शुरू हो चुका था और तब से अभी तक हम अर्थ व स्वार्थ में ही संलिप्त हैं। हमने अपने उन ऋषि-मुनियों, महात्माओं और बुद्धिजीवियों से कुछ नहीं सीखा, जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से मानव कल्याण हेतु अपना श्रेष्ठ अर्पण किया। हम अपनी अधिकांश अच्छी परंपराएँ, प्रथाएँ और आदर्श कर्त्तव्य तक भूलते जा रहे हैं।

पाश्चात्य जीवनशैली, परिस्थितियाँ व संस्कृति के मूलभाव को जाने बगैर हम भारत में रहकर उनका अंधानुकरण कर रहे हैं। विश्व के प्रत्येक देश अथवा भू-भाग के लोगों का रहन-सहन तथा खान-पान स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियाँ स्वमेव निर्धारित कर लेती हैं। हमारी भारतीय भौगोलिक परिस्थितियाँ उनसे बहुत भिन्न हैं। संस्कार और संस्कृति अहिंसावादी व उदार है, लेकिन आज के वैज्ञानिक युग ने विश्वस्तरीय नजदीकियाँ बढ़ा दी हैं, जिसके अब फायदे कम नुकसान ज्यादा दिखाई पड़ने लगे हैं। विश्व में बढ़ती वैमनस्यता, प्रतिस्पर्धा, वर्चस्व की भावना और अर्थ की आकांक्षा ने मतभेद और मनभेद दोनों पैदा कर दिए हैं। आज सीधा, सरल, सुखी व शांतिमय जीवनयापन किताबी बातों जैसा हो गया है।

एक जमाने में लोग ताजी हवा, स्वच्छ जल, प्राकृतिक परिवेश, शुद्ध-पौष्टिक-खाद्यान्न, योग, व्यायाम व नियम-संयम पर अधिक ध्यान दिया करते थे। शनैः शनैः यही ऐशोआराम और धनोपार्जन इंसान का ही दुश्मन बनता जा रहा है। स्वास्थ्य को छोड़कर सुख का मोह ही आज इंसान की सबसे बड़ी समस्या बन गई है। बदलती जीवनशैली एवं समयाभाव से उत्पन्न परिस्थितियों पर यदि हम गौर करें तो आज अपनाई जा रही दिनचर्या और रहन-सहन स्वयं को अप्रासंगिक तथा हास्यास्पद लगने लगेगी। हमने सुना है कि एक समय जब हमें पानी पीना होता था तो हमारे घर के लोग कुएँ आदि जलस्रोतों से ताजा-शीतल जल सामने प्रस्तुत कर देते थे। घरों के चारों ओर फलदार तथा छायादार वृक्ष हुआ करते थे। बिना रासायनिक खाद के बाड़ियों व खेतों में सब्जियाँ उपलब्ध रहती थीं। गर्मी में पेड़ों के नीचे शीतल छाया में आराम करना कितना सुखद होता था। आँगन में शीतल मंद पवन व प्राकृतिक वातावरण के आनंद की आज कल्पना ही रह गई है।

आज हमारी जो दिनचर्या है, हम जो करने हेतु बाध्य हैं, यदि चाह लें तो उसे बदला भी जा सकता है। कुछ भविष्यदृष्टा व प्रकृति प्रेमियों ने स्वयं को बदलना भी प्रारंभ कर दिया है। लोग दूषित शहरी जीवन को त्याग गाँवों की ओर पलायन करने लगे हैं। लोग प्रकृति की गोद में वृक्षारोपण, जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने के अभियान में जुट गए हैं। कुछ लोग योग व स्वाध्याय के माध्यम से अपनी जीवनशैली  बदलने में लगे हैं। इस समझदारी की आज सबसे बड़ी जरूरत इसलिए भी है कि ‘जान है तो जहान है’, जब हम ही नहीं रहेंगे तो हमारे द्वारा कमाये गए धन और संसाधनों का क्या औचित्य रहेगा?

सोचिए, अब पहले ताजे और शीतल जल को भूमि से निकालकर छत पर बनी टंकियों में कई दिनों के लिए भंडारण करते हैं। फिर दुबारा फ्रिज में शीतल करने रखा जाता है। तत्पश्चात उसके पीने की बारी आती है। पहले ईंट-कंक्रीट के बने कमरों का निर्माण किया जाता है जहाँ प्राकृतिक वायु, सूर्यप्रकाश और खुलापन नहीं होता। फिर वहाँ कृत्रिम प्रकाश, पंखे, ए.सी. से सामान्य वातावरण का अनुभव कर खुश होते हैं। पहले घरों के वातायन-दरवाजे बंद किये जाते हैं फिर बिजली और पंखों के उपयोग से खुलेपन का अनुभव करते हैं। पेड़-पौधे, पुष्प-लताएँ, पशु-पक्षी व पर्वत-जंगलों की कृत्रिमता से कमरे व हाल सजाकर नकली खुशी पाते हैं। ताजे फल-फूल, जूस व खाद्य पदार्थों को खाने के बजाए उन्हें रसायनों से संरक्षित कर सीलबंद कर उन्हें फ्रिजों और कोल्ड स्टोरों में रखते हैं। फिर रसायनों और संरक्षण अवधि के दुष्परिणामों की चिंता किए बगैर एक्सपायरी डेट के पहले खाकर स्वयं को सुरक्षित मान लेते हैं। चिंतन करने से ही समझ में आएगा कि हम अपने स्वास्थ्य की खातिर तरोताज़ा चीजों के उपयोग हेतु समय न निकालकर अपने ही शरीर को कितनी हानि पहुँचा रहे हैं। अर्थ को जीवन से अधिक मूल्यवान मानकर ऐसी असंयमित जीवनशैली का अभ्यस्त आज का इंसान अपनी बेवकूफियों को बुद्धिमानी समझ बैठा है।

यह बड़ी विडंबना ही कही जाएगी कि इस मानव और मानव समाज के हितार्थ जब प्रकृति अपने खुले हाथों से सब कुछ लुटाना चाहती है, तब भी मानव उसका उपभोग नहीं करना चाहता, लेकिन कुछ ही अवधि पश्चात प्रकृति प्रदत्त इन्हीं चीजों को हमने खाने-पीने की आदत में शुमार कर लिया है, अर्थात ताजी व स्वस्थ चीजें खाने-पीने के लिए हम प्रयास और अवसर भी नहीं निकाल पा रहे हैं।

देखते ही देखते एक शताब्दी में ही हम कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं। इतनी प्रगति और इतना परिवर्तन मानव समाज के स्वास्थ्य को लेकर किया गया होता तो आज मानव जीवन कितना सुखद व स्वस्थ होता? बीमारियों का कहीं नामोनिशान नहीं होता। आज जितना धन स्वास्थ्य को लेकर निजी व शासकीय स्तर पर व्यय किया जा रहा है, उससे हमारी यथार्थ प्रगति को पंख लग गए होते। सारांश यह है कि हमने आज तक स्वार्थान्ध हो जितनी स्वयं की क्षति की है जितने विनाश की ओर अग्रसर हुए हैं, यदि यही क्रम और गति रही तो एक दिन इस मानवीय जीवन की भयावह दुर्गति निश्चित है।

हम कह सकते हैं कि वर्तमान समय उन अंतिम अवसरों में एक उपयुक्त अवसर है जब हम अपनी सोच, अपनी मानसिकता और अपनी जीवनशैली में सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं। हमें काम, क्रोध, मद, लोभ, व मोह इन पाँचों विकारों को सीमित व नियंत्रण में रखना होगा, तभी मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध होगी। यदि हम बदलेंगे तो युग निश्चित रूप से बदलेगा, बस शर्त यही है कि दूसरों का इंतजार किए बगैर हमें स्वयं से ही शुरुआत करना पड़ेगी। आज एक नए जीवन, नए समाज और इस नवीन विचारधारा से जुड़ने और जोड़ने का भी समय आ गया है।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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Vijay Tiwari Kislay

आदरणीय,
श्री बावनकर जी
नमस्कार
ई-अभिव्यक्ति में मेरा आलेख प्रकाशित करने हेतु आपका आभार।
– विजय

डॉ भावना शुक्ल

बहुत शानदार यथार्थ