श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण  एवं  ज्ञानवर्धक आलेख  आयुर्वेद और अमृत तत्व। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 48 ☆

☆ आयुर्वेद और अमृत तत्व

आयुर्वेद हमारे शरीर, मस्तिष्क और प्रकृति को समझने में सहायता कर सकता है, और प्रकृति के स्वरूप को पहचानने में सक्षम है ताकि हम उस प्रकृति के स्वरूप को हमारे शरीर के भीतर भी देख सके ।

प्रकृति के तीन गुण हमारे मस्तिष्क को नियंत्रित करते हैं; हमारे शरीर की संरचना और आस-पास की प्रकृति के लिए पाँच तत्व जिम्मेदार हैं और छह स्वाद शरीर और मस्तिष्क  के बीच संबंध को नियंत्रित करते हैं । हम छह चक्र, तीन गुण, पाँच तत्व, छः स्वाद, और दस इंद्रियों की अभिव्यक्ति है । ये 24 असीमित आत्मा को सीमित या शरीर और मस्तिष्क से बंधे हुए हैं ।

हमें अपने शरीर और मस्तिष्क को प्रकृति के साथ समक्रमिक करने के लिए तीन नियमों का पालन करना होगा । सबसे पहले हमारे शरीर और मस्तिष्क को पर्यावरण, मौसम और आसपास के वातावरण इत्यादि के ताल के साथ ताल मिलाना है । दूसरा आसपास के साथ संरेखण है; और तीसरा बाहरी प्रकृति की हमारे शरीर की आंतरिक प्रकृति के साथ ध्रुवीयता है ।

अब मैं आपको आयुर्वेदिक दोषों के विषय में बताऊँगा । पहला कफ है जो वास्तव में पृथ्वी और जल तत्वों का संयोजन है । यह शरीर की स्थिरता और स्नेहन, ऊतक और शरीर के अपशिष्ट को नियंत्रित करता है । कफ सेल की संरचना को भी नियंत्रित करता हैं और स्रावों और पाचन अंगों को संरक्षित करने वाली चिकनाई को भी नियंत्रित करता हैं । मस्तिष्क में कफ एक समय में एक विचार को समझने के लिए मस्तिष्क के लिए आवश्यक स्थिरता प्रदान करता है । कफ की प्रकृति तेलीय, ठंडी, भारी, स्थिर, घनी और चिकनी है ।

दूसरा दोष पित्त है जो वास्तव में पानी और अग्नि तत्वों का संयोजन है । यह शरीर के संतुलन और संभावित ऊर्जा के संतुलन को नियंत्रित करता है । सभी पित्त की प्रक्रियाओं में पाचन शामिल है । इसके अतरिक्त पित्त कोशिकाओं के कार्यों के लिए ऊर्जा प्रदान करने के लिए पोषक तत्वों का पाचन करता है । मस्तिष्क में पित्त नए सूचना को संसाधित करता है और निष्कर्ष निकालता है । पित्त की प्रकृति तेलीय, गर्म, हल्की, तीव्र, तरल आदि है ।

तीसरे दोष के विषय में केवल कुछ लोग जानते हैं, यह अग्नि और वायु तत्वों का संयोजन है । यह विभिन्न अंगों की सतह के साथ शरीर की ऊर्जा के आंदोलन के लिए ज़िम्मेदार होता है ।

चौथा दोष वात है जो वायु और आकाश तत्वों का संयोजन है । यह शरीर में गतिशील ऊर्जा का सिद्धांत है, मुख्य रूप से तंत्रिका तंत्र से संबंधित है और सभी शरीर की गतिविधियों को नियंत्रित करता है । यह पोषक तत्वों को कोशिकाओं में अंदर एवं अपशिष्ट को बाहर ले जाता है । यह भोजन को निगलने और चबाने के लिए भी जिम्मेदार है । मस्तिष्क में यह नयी सूचनाओं की तुलना में स्मृति से व्यापक सूचना पुनर्प्राप्त करता है । इसकी प्रकृति शुष्क, ठंडा, हल्का, अनियमित और गतिशील है ।

पाँचवे दोष के विषय में महान ऋषियों को छोड़कर और कोई नहीं जानता है यह आकाश और छठा चक्र के तत्व महत या ब्रह्मंडीय बुद्धि का सयोजन होता है यह आध्यात्मिक प्रथाओं की इच्छाओं और भावनाओं के लिए जिम्मेदार है ।

अब अगर हम शरीर में देखते हैं, तो दो प्रकार की क्रियाओं से एक बीमारी उत्पन्न हो सकती है । पहली एक दूसरे के साथ दोषों के असंतुलन से होती है जैसे कि कभी-कभी वात बढ़ता है और कफ और पित्त कम हो जाते हैं, और इसी तरह अन्य दोषों के लिए ।  दूसरी, दोषों की आंतरिक संरचना से, जैसे कि कफ दोष, जो पृथ्वी और जल का संयोजन है- यदि पृथ्वी का तत्व बढ़ता है और जल कम हो जाता है, तो यह गुर्दे में पत्थरी की तरह की बीमारी पैदा कर सकता है, इसी तरह यदि विपरीत हो अर्थात पृथ्वी तत्व कम हो जाये और जल तत्व बढ़ जाये तो अन्य विपरीत समस्याएँ हो सकती है, और इसी तरह अन्य दोषों के लिए ।

इस परिदृश्य के अनुसार शरीर और मस्तिष्क की कुल संभावित बीमारियों की संख्या 45 है और शेष इन 45 बीमारियों की ही उप श्रेणियाँ हैं ।

अगर हम अपने स्वाद कलियों के छह स्वाद देखें । मीठा स्वाद पृथ्वी और जल तत्वों का संयोजन है, खट्टा पृथ्वी और अग्नि तत्वों का संयोजन है, नमकीन स्वाद जल और अग्नि तत्वों का संयोजन है, तीखा स्वाद अग्नि और वायु तत्वों का संयोजन है कड़वा वायु और आकाश तत्वों का संयोजन है और कसैला वायु और पृथ्वी तत्वों का संयोजन है ।

क्या आप प्रकृति को नियंत्रित करने के स्तर पर आत्मनिर्भर बनाने के विषय में जानते हैं, सृजन का पूरा अनुक्रम है । भोजन से रस बनता है । रस से रक्त, रक्त से माँस बनता है । माँस से मैदा, मैदा से हड्डिया बनती है और हड्डियों से मज्जा धातु जिसे शरीर का सार कहते हैं जब इसे शरीर में बनाए रखा जाता है तो यह सघन होकर रोशनी उत्पन्न करता है । जो ओजस होता है तपस्या के द्वारा ओजास को तप में परिवर्तित किया जाता है, और तप से व्यक्ति सिद्ध या प्रकृति का नियंत्रक बन जाता है ।

मैंने पहले ही बताया है कि हम जो ठोस भोजन खाते हैं वह तीन भागों में विभाजित होता है सकल या स्थूल अपशिष्ट या मल के रूप में शरीर से बाहर निकल जाता है, मध्यम माँस का निर्माण करता है, और सूक्ष्म भाग मन बन जाता है ।

इसी प्रकार हम जिस तरल को पीते हैं वह तीन भागों में विभाजित होता है स्थूल भाग मूत्र के रूप में अपशिष्ट होता है, मध्यम रक्त बन जाता है, और सूक्ष्म प्राण बन जाता है ।

इसी तरह ‘तेज’ या चिकनाई जो हम खाते हैं तीन भागों में विभाजित हो जाता है सकल या स्थूल से हड्डी बनती है, मध्यम से मज्जा, और सूक्ष्म हमारी जुबान या बोलने की शक्ति बन जाती हैं ।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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