श्री जय प्रकाश पाण्डेय
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की अगली कड़ी में उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश। श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने 27 वर्ष पूर्व स्व परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 55 ☆
☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – – लोक शिक्षण ☆
जय प्रकाश पाण्डेय–
आपके लेखन में प्रारंभ से लोक शिक्षण पर बहुत बल है। कई लोगों का मानना है कि इस उद्देश्य के प्रबल आग्रह के कारण आपके लेखन की साहित्यिक महत्ता या गरिमा क्षतिग्रस्त हुई है, आत्म समीक्षा के एकांत क्षणों में क्या आपको भी ऐसा लगता है ?
हरिशंकर परसाई-
एक तो इसका कारण यह हो सकता है कि मैं 10-12 साल शिक्षक रहा हूं, तो जो मेरे अंदर शिक्षक था, वह मरा नहीं या मैं शिक्षक का ही रोल प्ले करता रहा। मेरे लेखन में लोक शिक्षण है और मैं अभी भी ये मानता हूं कि लोक शिक्षण बहुत आवश्यक है, जो देश में वर्तमान हालात चल रहे हैं उसके लिए मैं उसी बात को दोषी मानता हूं कि राजनैतिक दलों ने, ट्रेड यूनियन्स ने, विश्वविद्यालयों ने लोक शिक्षण नहीं कराया। लोगों को शिक्षित नहीं किया गया। वैज्ञानिक दृष्टि नहीं दी गई, तर्क नहीं दिए गए। इतिहास सही ढंग से नहीं समझाया गया। समाज की रचना को ठीक से नहीं समझाया गया। अन्धविश्वासों को नहीं मिटाया गया, पुरानी परंपराओं के प्रति विरक्ति नहीं पैदा की गई। ये लोक शिक्षण होता है जो वास्तव में नहीं हुआ, हमारे देश में लोक शिक्षण नहीं हुआ, इसलिए हम आज भी देख रहे हैं कि हमारे देश के ऊपर संकट ही संकट हैं। लोक शिक्षण दो प्रकार का होता है, एक तो सीधा, स्पष्ट और दूसरा परोक्ष या सांकेतिक। मेरे लेखन में कहीं शायद सीधा डायरेक्ट कोई शिक्षण आ गया हो, कोशिश मैंने यही की है कि परोक्ष रूप से शिक्षण करूं, अपने व्यंग्य के द्वारा या स्थितियों का चित्रण करके मैं रख दूं और उससे पढ़ने वाला शिक्षक हो जावे, ये मैंने कोशिश की। अब इससे मेरे साहित्य की मौलिकता घटी या बढ़ी है, मैं नहीं कह सकता हूं, हो सकता है घटी हो, मान लेता हूं, परन्तु मैं लोक शिक्षण को साहित्य में आवश्यक मानता हूं।
© जय प्रकाश पाण्डेय
प्रासंगिक प्रश्न….
वाह शानदार
बहुत अच्छा इंटरव्यू, बधाई