(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक बचपन से वृद्धावस्था तक न जाने कितनी बार अनायास ही मुंह से निकल जाता है ‘ मर गए ‘ और श्री विवेक जी ने इस रचना “आज कितनी बार मरे!” से कई स्मृतियाँ जीवित कर दीं । इस अत्यंत सार्थक आलेख के लिए श्री विवेक जी का हार्दिक आभार। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 64 ☆
☆ आज कितनी बार मरे ☆
बचपन में बड़ी मधुरता होती है, ढेरों गलतियां माफ होती है, सब की संवेदना साथ होती है, ’अरे क्या हुआ बच्चा है’। तभी तो भगवान कृष्ण ने कन्हैया के अपने बाल रूप में खूब माखन चुरा चुरा कर खाया, गोपियों के साथ छेड़खानी की कंकडी से निशाना साधकर मटकियां तोड़ी, पर बेदाग बने रहे, बच्चे किसी के भी हो, बड़े प्यारे लगते हैं, चूहे का नटखट, बड़े-बड़े कान वाला बच्चा हो या कुत्ते का पिल्ला प्यारा ही लगता है, शेर के बच्चे से डर नहीं लगता, और सुअर के बच्चे से घिन नहीं लगती मैंने भी बचपन में खूब बदमाशियां की है, बहनों की चोटी खींची है, फ्रिज में कागज के पुडे में रखे अंगूर एक-एक कर चट कर डाले है, और पुडा ज्यों का त्यों रखा रह जाता, जब मां पुडा खोलती तो उन्हें सिर्फ डंठल ही मिलते, छोटी बड़ी गलती पर जब भी पिटाई की नौबत आती तो, ’उई मम्मी मर गया’ की गुहार पर, मां का प्यार फूट पड़ता और मैं बच निकलता . स्कूल पहंचता, जब दोस्तों की कापियां देखता तो याद आती कि मैंने तो होमवर्क किया ही नहीं है, स्वगत अस्फुट आवाज निकल पड़ती ’मर गये’।
बचपन बीत गया नौकरी लग गई, शादी हो गई बच्चे हो गये पर यह मरने की परम्परा बकायदा कायम है, दिन में कई-कई बार मरना जैसे नियति बन गई है। जब दिन भर आफिस में सिर खपाने के बाद घर लौटने को होता हूं , तो घर में घुसते घुसते याद आता है कि सुबह जाते वक्त बीबी, बच्चों ने क्या फरमाईश की थी। कोई नया बहाना बनाता हूं और ’मर गये’ का स्वगत गान करता हूं, आफिस में वर्क लोड से मीटिंग की तारीख सिर पर आती है, तब ’मर गये’ का नारा लगाता हूं और इससे इतनी उर्जा मिलती है कि घण्टों का काम मिनटो में निपट जाता है, जब साली साहिबा के फोन से याद आता है कि आज मेरी शादी की सालगिरह है या बीबी का बर्थ डे है तो अपनी याददाश्त की कमजोरी पर ’मर गये’ के सिवा और कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया होती ही नहीं। परमात्मा की कृपा है कि दिन में कई कई बार मरने के बाद भी ’वन पीस’ में हट्टा कट्टा जिंदा हूं और सबसे बड़ी बात तो यह है कि पूरी आत्मा साबूत है। वह कभी नहीं मरी, न ही मैंने उसे कभी मारा वरना रोजी, रोटी, नाम, काम के चक्कर में ढेरों लोगों को कुछ बोलते, कुछ सोचते, और कुछ अलग ही करते हुये, मन मारता हुआ, रोज देखता हूं . निहित स्वार्थो के लिये लोग मन, आत्मा, दिल, दिमाग सब मार रहे है। पल पल लोग, तिल तिल कर मर रहे है। चेहरे पर नकली मुस्कान लपेटे, मरे हुये, जिंदा लोग, जिंदगी ढोने पर मजबूर है। नेता अपने मतदाताओं से मुखातिब होते है, तो मुझे तो लगता है, मर मर कर अमर बने रहने की उनकी कोषिषों से हमें सीख लेनी चाहिये, जिंदगी जिंदा दिली का नाम है।
मेरा मानना है, जब भी, कोई बड़ी डील होती है, तो कोई न कोई, थोड़ी बहुत आत्मा जरूर मारता है, पर बड़े बनने के लिये डील होना बहुत जरूरी है, और आज हर कोई बड़े बनने के, बड़े सपने सजोंये अपने जुगाड़ भिड़ाये, बार-बार मरने को, मन मारने को तैयार खड़ा है, तो आप आज कितनी बार मरे? मरो या मारो! तभी डील होंगी। देश प्रगति करेगा, हम मर कर अमर बन जायेंगे।
© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर
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